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याज्ञवल्क्य ऋषि की कहानी

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 महर्षि याज्ञवल्क्य जी का नाम एक महान अध्यात्मवेत्ता, योगी, ज्ञानी, धर्मात्मा, श्रीरामकथा के प्रवक्ता के रूप में सबने सुना है। इनका नाम ऋषि परम्परा में बड़े आदर के साथ लिया जाता हैं। पुराणों में इन्हें ब्रह्मा जी का अवतार बताया गया है ( श्रीमदभा. 12/6/64 )। ये वेदाचार्य महर्षि वैशम्पायन के शिष्य थे। इन्होंने अपने गुरू वैशम्पायन जी से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। एक मान्यता के अनुसार एक बार गुरू से कुछ विवाद हो जाने के कारण गुरू वैशम्पायन जी इनसे रूष्ट हो गये और कहने लगे कि तुम मेरे द्वारा पढ़ाई गई यजुर्वेद को वमन कर दो। गुरूजी की आज्ञा पाकर याज्ञवल्क्य जी ने अन्नरूप में वे सब ऋचाएं वमन कर दी जिन्हें वैशम्पायन जी के दूसरे शिष्यों ने तीतर, बनकर ग्रहण कर लिया। यजुर्वेद की वही शाखा जो तीतर बनकर ग्रहण की गयी तैतरीय शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसके पश्चात् याज्ञवल्क्य जी एक अन्य गुरूकुल में गये वहां पर विद्याध्ययन करने लगे ये बहुत ही कुशाग्र बुद्धि थे। इनकी सीखने की प्रवृत्ति भी तीव्र थी। ये स्वाभिमानी स्वभाव के थे। यहां भी किसी बात को लेकर गुरू के साथ इनका विवाद हो गया और इन्होंने सोचा...

वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश की विधि कलयुग के परिपेक्ष में

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    ब्राह्मण जो जन्म से है तथा उचित समय से यज्ञोपवीत संस्कार हुआ है तथा वे ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ तथा सन्यास चारो आश्रम के अधिकृत हैं। यह सामान्य नियम है। ब्राह्मण के ऊपर बहुत दायित्व होता है वे विश्व को स्वस्थ मार्गदर्शन देने में ईश्वर द्वारा अधिकृत माने गए हैं। कालक्रम से विलुप्त ज्ञान विज्ञान को तपोवल से उद्भाषित करना विकृत ज्ञान विज्ञान को विशुद्ध करना  श्रूत्रात्मक ज्ञान को विषद करना उनका मुख्य दायित्व होता है तथा यह सब दायित्व वह तभी कर सकता है जब उनके सभी जीवन त्याग और ताप से मन्डित और भूषण हो ।      जो क्षत्रिय है परंपरा से राजकुल में उत्पन्न है समय पर यज्ञोपवीत संस्कार से संपन्न है तदनुकूल जीवन भी है वह ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ तीन आश्रमों तक अधिकृत माने गए हैं सन्यास आश्रम का मुख्य विधान इसलिए नहीं है कि क्योंकि क्षत्रिय को राष्ट्र की रक्षा को संतुलित करने का दायित्व रहता है। वैश्य गौरक्ष,कृषि,वाणिज्य तीनों में अधिकृत है दक्षता प्राप्त कर आर्थिक दृष्टि से राष्ट्र को सम्मोउन्नती करना उनका दायित्व है तथा ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम तक...

कुंडलिनी जागरण: ध्यान, प्राणायाम, और आसन की महत्वपूर्णता

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कुंडलिनी जागरण एक गहरा योगिक प्रक्रिया है जो शरीर की ऊर्जा को जागरूक करती है। इस प्रक्रिया में ध्यान, प्राणायाम, और आसन का बहुत महत्व होता है। ध्यान करने से मन को शांति मिलती है और व्यक्ति अपने अंतरंग अनुभवों को जानता है। प्राणायाम करने से शरीर की ऊर्जा को नियंत्रित किया जा सकता है और श्वसन द्वारा शरीर को ऊर्जा मिलती है। आसन करने से शरीर की ऊर्जा को नियंत्रित किया जा सकता है और शरीर के अंगों को फिट रखा जा सकता है। इसलिए, कुंडलिनी जागरण के लिए ध्यान, प्राणायाम, और आसन का बहुत महत्व होता है। इन तकनीकों के माध्यम से शरीर की ऊर्जा को जागरूक किया जा सकता है और इस प्रक्रिया को सफल बनाने में मदद मिलती है। कुंडलिनी जागरण क्या होता है और इसे कैसे जगाया जा सकता है? कुंडलिनी जागरण एक प्राचीन योगिक प्रक्रिया है जिसमें शरीर की ऊर्जा को जागरूक किया जाता है और उसे ऊपरी चक्रों में ले जाया जाता है। इस प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य मानव के अंतर्मन की ऊर्जा को जागरूक करना और उसे उच्च स्तर की चेतना तक पहुंचाना होता है। कुंडलिनी जागरण को जगाने के लिए विभिन्न योगिक तकनीकें और प्राणायाम का उपयोग किया जाता ह...

महावीर स्वामी का जीवन और उपदेश

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        महावीर का जन्म ५९९ ई० पू० में हुआ था। वे बहत्तर वर्षों तक जीवित रहे । ५६९ ई॰ पू॰ में उन्होंने गृह-त्याग किया। उन्होंने ५५७ ई० पू० में सर्वज्ञता प्राप्त की तथा ५२७ ई० पू० में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। वे अन्तिम तीर्थंकर थे ।        महावीर का जीवन सत्यवादिता, आर्जव तथा पवित्रता से ओत-प्रोत था। उनमें ये गुण आत्यन्तिक रूप में विद्यमान थे। वे आजीवन अकिंचन बन कर रहे ।        महारानी त्रिशला तथा कुण्डलपुर के महाराज सिद्धार्थ उनके माता-पिता थे । त्रिशला को प्रियकर्णी के नाम से भी जाना जाता है। 'महा' का अर्थ महान् तथा 'वीर' का अर्थ उदात्त नायक होता है। तीर्थ का शाब्दिक अर्थ होता है घाट जो पार उतरने का साधन है । इस शब्द में निहित लाक्षणिकता के अनुसार इसका तात्पर्य पथ-प्रदर्शक या उस दर्शन से है जो किसी को जन्म-मरण के आवर्तन के महोदधि को पार करने की क्षमता प्रदान करता है । 'कर' का अर्थ कर्ता होता है। 'तीर्थ' तथा 'कर' इन दोनों शब्दों का समवेत अर्थ पवित्र जैन अर्हत होता है।             महा...

गोत्र कितने होते हैं: जानिए कितने प्रकार के गोत्र होते हैं और उनके नाम

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गोत्र कितने होते हैं: पूरी जानकारी गोत्र का अर्थ और महत्व गोत्र एक ऐसी परंपरा है जो हिंदू धर्म में प्रचलित है। गोत्र एक परिवार को और उसके सदस्यों को भी एक जीवंत संबंध देता है। गोत्र का अर्थ होता है 'गौतम ऋषि की संतान' या 'गौतम ऋषि के वंशज'। गोत्र के माध्यम से, एक परिवार अपने वंशजों के साथ एकता का आभास करता है और उनके बीच सम्बंध को बनाए रखता है। गोत्र कितने प्रकार के होते हैं हिंदू धर्म में कई प्रकार के गोत्र होते हैं। यहां हम आपको कुछ प्रमुख गोत्रों के नाम बता रहे हैं: भारद्वाज वशिष्ठ कश्यप अग्निवंशी गौतम भृगु कौशिक पुलस्त्य आत्रेय अंगिरस जमदग्नि विश्वामित्र गोत्रों के महत्वपूर्ण नाम यहां हम आपको कुछ महत्वपूर्ण गोत्रों के नाम बता रहे हैं: भारद्वाज गोत्र वशिष्ठ गोत्र कश्यप गोत्र अग्निवंशी गोत्र गौतम गोत्र भृगु गोत्र कौशिक गोत्र पुलस्त्य गोत्र आत्रेय गोत्र अंगिरस गोत्र जमदग्नि गोत्र विश्वामित्र गोत्र ब्राह्मण गोत्र लिस्ट यहां हम आपको कुछ ब्राह्मण गोत्रों के नाम बता रहे हैं: भारद्वाज गोत्र वशिष्ठ गोत्र कश्यप गोत्र भृगु गोत्र आत्रेय गोत्र अंगिरस गोत्र कश्यप गोत्र की कुलदे...