गृह्यसूत्र गृह्यसूत्रों का महत्त्व : गृह्यसूत्रों का अनेक कारणों से विशेष महत्त्व है। संक्षेप में ये कारण हैं:- १. गृह्यसूत्रों का संबन्ध गृहस्थ जीवन से है। गृहस्थ जीवन से संबद्ध सभी संस्कार इसमें संगृहीत हैं, अतः जीवन के सबसे बहुमूल्य काल का यह पथप्रदर्शक है। २. इनमें जीवन से संबद्ध सभी १६ संस्कार आते हैं। संस्कार जीवन को परिष्कृत करने की एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। उस प्रक्रिया का आधार होने के कारण ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ३. इनमें संस्कारों की समग्र विधि दी गई है, जो किसी समाज या राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना के उद्घोषक हैं। ४. ये वैदिक संस्कृति और सभ्यता के परिचायक हैं। ५. इनसे आर्यों की सामाजिक स्थिति और परम्पराओं का ज्ञान होता है। ६. इनसे भारोपीय समुदाय में प्रचलित धार्मिक और सामाजिक परंपराओं, रीति-रिवाजों और प्रथाओं पर प्रकाश पड़ता है। प्रो० विन्टरनित्स ने अपने एक निबन्ध में सिद्ध किया है कि भारोपीय आर्यों में गहरे धार्मिक और सामाजिक संबन्ध विद्यमान थे ।' अतएव रोमन, जर्मन, यूनानी और स्लावों के विवाह-संस्कार में अनेक समानताएँ हैं। जैसे, विवाह में अग्नि की परिक्रम
परमहंस स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का जन्म अल्मोड़ा के निकट हिमालय की तराई में स्थित एक गांव में हुआ था। उनमें बचपन से ही विलक्षण प्रतिभाएं परिलक्षित होती थीं तथा छः वर्ष की उम्र में ही प्रथम आध्यात्मिक अनुभूति हुई थी। हिमालय के उच्चतर क्षेत्रों की ओर यात्रा करने वाले उन मनीषियों और साधुओं का आर्शीवाद उन्हें प्राप्त होता रहा जो उनके घर के रास्ते से गुजरते थे। उन मनीषियों और साधुओं ने उन्हें आध्यात्मिक अनुभवों की ऊंचाइयों तक पहुंचने के लिए प्रेरित किया और इससे उनमें तीव्र वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ। इतनी कम अवस्था में ऐसा होना एक असाधारण बात थी। उन्होंने उन्नीस वर्ष की अवस्था में अपना घर एवं परिवार छोड़ दिया तथा गुरू की खोज में निकल पड़े। कुछ समय बाद वे ऋषिकेश पहुंचे तथा वहां उन्हें अपने आध्यात्मिक गुरू स्वामी शिवानन्द सरस्वती के दर्शन हुए। वे गुरू-आश्रम में बारह वर्षों तक रहे। वहां वे सदैव कर्मयोग में रत रहते थे। इससे स्वामी शिवानन्द जी की यह धारणा ही बन गई थी कि वे अकेले चार व्यक्तियों का कार्य करते हैं। स्वामी जी प्रातः काल से लेकर देर रात्रि तक कर्मयोग में व्यस्त रहते थे। वे आश्रम की सफा