मीराबाई जीवन परिचय || मीराबाई की कहानी
मीरा को राधा का अवतार कहा जाता है। उसका जन्म संवत १५५७ अथवा १४९९ ई. में राजस्थान-स्थित मारवाड़ के एक छोटे राज्य मेड़ता के निकटस्थ कुर्खी गाँव में हुआ था। वह रतनसिंह रणथोर की पुत्री तथा मेड़ता के दूदा जी की पौत्री थी। मेड़ता के रणथोर विष्णु के परम भक्त थे। मीरा का पालन-पोषण वैष्णव मत-प्रभावित वातावरण में हुआ था जिसके फल-स्वरूप वह भगवान् कृष्ण के भक्ति-मार्ग की ओर उन्मुख हो गयी । चार वर्ष की अल्पायु में ही उसमें धार्मिक प्रवृत्ति के दर्शन होने लगे। एक बार उसके निवास स्थान के सम्मुख से कोई बारात जा रही थी। दूल्हा आकर्षक परिधान धारण किये हुए था। बालिका मीरा ने उसे देख कर अपनी माँ से बाल-सुलभ सहजता से पूछा—“माँ, मेरा दूल्हा कौन है ?" मीरा की माँ मुस्करा उठीं । उन्होंने कुछ विनोदपूर्ण तथा कुछ गाम्भीर्य मिश्रित भाव से श्रीकृष्ण की प्रतिमा की ओर संकेत करते हुए कहा- "मेरी प्रिय मीरा, यह सुन्दर प्रतिमा ही तुम्हारा दूल्हा है।"
अब बालिका मीरा कृष्ण की प्रतिमा से अत्यधिक प्रेम करने लगी। उसके समय का अधिकांश प्रतिमा के प्रसाधन में ही व्यतीत होता था। वह प्रतिमा का पूजन करती, उसके साथ सोती, उसके चतुर्दिक् नृत्य करती और उसके सम्मुख मधुर गीत गाती । प्रतिमा के साथ उसका वार्तालाप भी होता था ।
मीराबाई का जीवन परिचय: बचपन और परिवार की पृष्ठभूमि :-
मौरा के पिता ने मेवाड़-स्थित चित्तौड़ के राणा कुम्भा के साथ मीरा के विवाह का आयोजन किया। मीरा एक कर्तव्यपरायण पत्नी थी। वह अपने पति के आदेश का निष्ठापूर्वक पालन करती थी। गृह-कार्य से मुक्त हो कर वह प्रति दिन भगवान् कृष्ण के मन्दिर में चली जाती तथा पूजन के पश्चात् उनकी प्रतिमा के समक्ष गायन तथा नृत्य किया करती। वह लघु विग्रह उठ कर मीरा का आलिंगन करता, वंशी बजाता तथा उसके साथ वार्तालाप करता था। ईर्ष्यादि सांसारिक कालुष्य से ग्रस्त राणा की माँ तथा राजप्रासाद की कुछ अन्य महिलाएँ मीरा के इस आचरण को उचित नहीं समझती थी। मीरा के प्रति उनके मन में आक्रोश के भाव थे। मीरा की सास प्रायः उसकी भर्त्सना किया करती तथा उसे दुर्गा की पूजा करने के लिए विवश किया करती थी, किन्तु मीरा का निश्चय सुदृढ़ था। उसने कहा – “मैंने अपना जीवन अपने प्रेमी भगवान् कृष्ण को अर्पित कर दिया है।"
मीरा की ननद उदाबाई एक षड्यन्त्र रच कर निर्दोष मीरा की निन्दा करने लगी। उसने राणा को सूचित किया कि मीरा कुछ लोगों से गुप्त रूप से प्रेम करती है और उसने मीरा को उसके प्रेमियों के साथ मन्दिर में स्वयं देखा है। उसने राणा से यह भी कहा कि यदि वह उसके साथ कभी रात को मन्दिर में चलें, तो वह उन्हें उसके प्रेमियों को दिखा भी देगी। उसने राणा से यहाँ तक कह डाला कि मीरा ने अपने आचरण से चित्तौड़ के राणा-परिवार की प्रतिष्ठा को कलंकित कर दिया है। राणा कुम्भा क्रोधोन्मत्त हो उठे । हाथ में तलवार लिये वह मीरा के आवास के आन्तरिक कक्षों की ओर दौड़ पड़े। सौभाग्य से मीरा अपने कक्ष में नहीं थी। राणा के एक दयालु सम्बन्धी ने उन्हें शान्त करते हुए कहा- "राणा, शीघ्रता मत करो। आवेश में कुछ करने से तुमको भविष्य में पश्चात्ताप करना होगा । घटनाओं के सतर्कतापूर्ण निरीक्षण के पश्चात् ही वास्तविकता के सम्बन्ध में किसी निष्कर्ष पर पहुँचो । मीरा एक महान् भक्त महिला है। जो कुछ तुमने सुना है, वह उसके विरुद्ध निन्दा का एक मिथ्या अभियान भी हो सकता है। मीरा के सर्वनाश के लिए कुछ ईर्ष्यालु महिलाओं की यह एक दुरभिसन्धि भी हो सकती है। इस समय तुम शान्त रहो।" राणा कुम्भा अपने सम्बन्धी के इस विवेकपूर्ण परामर्श के प्रति सहमत हो गये। राणा की बहन उन्हें आधी रात को मन्दिर में ले गयी। जब राणा द्वार खोल कर मन्दिर के भीतर गये। तब उन्होंने वहाँ मीरा को एकाकी पाया। वह आनन्दातिरेक में कृष्ण भगवान् के विग्रह से वार्तालाप कर रही ।
राणा ने मीरा से कहा—“मीरा, तुम इस समय किससे बात कर रही हो ? अपने प्रेमी को मेरे सामने ले आओ।" मीरा ने उत्तर दिया—“मेरे हृदय को चुराने वाला स्वामी यहीं बैठा है ।" इतना कह कर वह मूर्च्छित हो गयी। कुछ लोगों ने यह मिथ्या प्रचार कर दिया कि मीरा साधुओं से निस्संकोच मिला-जुला करती है। निस्सन्देह उसके हृदय में साधुओं के प्रति आदर तथा सम्मान की भावना थी और वह उनसे बिना किसी झिझक के मिलती-जुलती थी। मीरा ने इस अर्थहीन अपकीर्ति की ओर कभी कोई ध्यान नहीं दिया। वह सर्वदा अडिग तथा अक्षुब्ध रही।
राणा तथा उनके सम्बन्धियों द्वारा मीरा को कई प्रकार से उत्पीड़ित किया गया। उसके प्रति वही व्यवहार किया गया जो हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद के प्रति किया था। हरि ने प्रह्लाद की रक्षा की । इसी प्रकार श्रीकृष्ण मीरा की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहे । एक बार राणा ने एक टोकरी में एक नाग बन्द कर मीरा के पास इस सन्देश के साथ भेजा कि इसमें फूलों का हार है। मीरा स्नान से निवृत्त हो कर पूजा करने बैठ गयी । इसके पश्चात् जब उसने टोकरी खोली, तब उसे उसमें श्रीकृष्ण की एक मनोहर मूर्ति तथा फूलों का एक हार मिला। इसके पश्चात् राणा ने उसके पास विष का एक प्याला भेज कर उसे अमृत बताया। मीरा ने उसे भगवान् को अर्पित कर दिया और तत्पश्चात् इसे प्रसाद रूप में स्वयं ग्रहण कर लिया। यह उसके लिए वास्तविक अमृत था । इसके पश्चात् राणा ने उसके शयन के लिए कण्टकों की शय्या के भेजी। मीरा अपनी पूजा समाप्त कर उस पर सो गयी और आश्चर्य की बात तो यह है कि कण्टकों की वह शय्या गुलाब के फूलों की शय्या में रूपान्तरित हो गयी ।
अपने पति के सम्बन्धियों द्वारा इस प्रकार उत्पीड़ित तथा अभिशंसित मीरा ने तुलसीदास जी को एक पत्र भेज कर यह पूछा कि इस स्थिति में क्या करना उचित होगा । उसने पत्र में लिखा था - "साधुओं के साथ रहने के कारण मेरे सभी सम्बन्धी मुझे प्रताड़ित करते हैं जिसके कारण मैं अपनी भक्ति-साधना विधिवत् नहीं कर पाती। • अपने बाल्यकाल से ही मैंने गिरिधर गोपाल को अपना सखा मान लिया है और उनके साथ मैं घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हो चुकी हूँ। मैं इस सम्बन्ध को तोड़ नहीं सकती ।"
तुलसीदास ने उस पत्र के उत्तर में लिखा- "जो लोग राम तथा सीता की पूजा नहीं करते, उन्हें शत्रु समझ कर उनका परित्याग कर दो, भले ही वे तुम्हारे निकटतम सम्बन्धी ही क्यों न हों। भगवान् की सान्निध्य प्राप्ति के लिए प्रह्लाद ने अपने पिता का परित्याग किया, विभिषण ने अपने भाई रावण का परित्याग किया, भरत ने अपनी माता का परित्याग किया, बलि ने अपने गुरु तक का परित्याग किया और व्रज की गोपियों ने अपने पतियों का परित्याग किया। ऐसा करने के पश्चात् इन लोगों के आनन्द में वृद्धि ही हुई। पवित्र-हृदय सन्तों का कहना है कि भगवान् के प्रति अनुरक्ति तथा प्रेम ही सत्य तथा शाश्वत है। अन्य सारे सम्बन्ध मिथ्या तथा क्षणिक हैं।”
मीराबाई की कहानी: अकबर और तानसेन के संगीत सभा में :-
एक बार अकबर तथा उसकी राज-सभा के संगीतज्ञ तानसेन छद्मवेश में मीरा के उत्प्रेरक भक्ति-गीत सुनने के लिए चित्तौड़ आये। मन्दिर में प्रवेश कर उन लोगों ने मीरा के आत्मोद्दीपक गीत सुने जिनसे उनका हृदय लुप्त हो गया। वस्तुतः अकबर उन गीतों से अत्यधिक प्रभावित हुआ। वहाँ से चलने के पूर्व उसने मीरा के पावन चरणों का स्पर्श किया और प्रतिमा के सम्मुख भट-स्वरूप पत्रे का एक हार रख दिया। किसी प्रकार राणा को भी यह ज्ञात हो गया कि अकबर ने छद्मवेश में मन्दिर में प्रविष्ट हो कर मीरा के चरणों का स्पर्श करने के पश्चात् भेंट-स्वरूप उसे एक हार प्रदान किया था। वह क्रोधाग्नि में जल उठे। उन्होंने मीरा से कहा- “तुम नदी में डूब मरो जिससे संसार भविष्य में तुम्हारा मुख न देख सके। तुमने मेरे परिवार को कलंकित कर दिया।
मीरा पति की आज्ञा शिरोधार्य कर गोविन्द, गिरिधर, गोपाल — हरि के इन नामों का स्मरण करते हुए नदी में डूबने के लिए निकल पड़ी मार्ग में वह उल्लसित हो कर गीत गाती तथा नृत्य करती रही। नदी के तट पर पहुँच कर जब उसने उसमें कूदने के लिए अपना पैर उठाया, तब पीछे से एक हाथ ने उसे पकड़ लिया। पीछे मुड़ कर देखने पर उसे अपने प्रियतम कृष्ण के दर्शन हुए। वह मूर्च्छित हो गयी। कुछ क्षणों के उपान्त उसकी आँखें खुलीं। भगवान् ने मुस्कराते हुए उससे कहा- "मेरी प्रिय मीरा, तुम्हारा पति एक नश्वर प्राणी है जिससे अब तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं रहा। अब तुम पूर्णतः स्वतन्त्र हो । हृदय को प्रमुदित करो। तुम मेरी हो। अब तुम व्रज के कुंज-वनों तथा वृन्दावन की गलियों की ओर शीघ्र प्रस्थान करो। मेरी बच्ची, तुम मेरी खोज वहीं करो। शीघ्रता करो।" इसके पश्चात् वे अन्तर्धान हो गये ।
मीरा ने उस दिव्य आह्वान का शीघ्र ही अनुसरण किया। वह राजस्थान की तप्त वालुकामयी भूमि पर नंगे पांव चल पड़ी मार्ग में महिलाओं, बालक-बालिकाओं तथा भक्त जनों ने श्रद्धापूर्वक उसका स्वागत-सत्कार किया। वृन्दावन पहुँचते ही उसे उसके मुरलीधर के दर्शन हो गये। क्षुधा की शान्ति के लिए वह वृन्दावन में भिक्षाटन करती और गोविन्द-मन्दिर में जा कर अपने आराध्य का पूजन करती । तबसे यह मन्दिर अधिकाधिक प्रख्यात होता गया और अब तो यह एक तीर्थस्थान बन गया है। उसके भक्त उसके दर्शनार्थ चित्तौड़ से वृन्दावन आये। राणा कुम्भा एक भिक्षुक के वेश में उससे मिलने वृन्दावन आये और उसके समक्ष स्वयं को अनावृत करते हुए उन्होंने अपने पूर्व-कुकर्मों तथा निर्मम कृत्यों के लिए पश्चात्ताप किया। मीरा शीघ्र ही अपने पति के चरणों पर अवनत-शिर हो गयी।
वृन्दावन के वैष्णवों में जीव गोस्वामी शीर्षस्थ थे। मीरा उनका दर्शन करना चाहती थी । उन्होंने उसकी इस इच्छा को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने मीरा को इस आशय की सूचना दे दी कि वह अपने समक्ष किसी भी नारी को आने की अनुमति नहीं देंगे। मीराबाई ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा- "वृन्दावन का प्रत्येक व्यक्ति नारी है।
एकमात्र गिरिधर गोपाल ही यहाँ पुरुष हैं; किन्तु आज मुझे ज्ञात हुआ कि यहाँ उनके अतिरिक्त एक अन्य पुरुष भी है।" मीरा के इन शब्दों से जीव गोस्वामी को लज्जित होना पड़ा। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मीरा एक महान भक्त महिला है। शीघ्र ही उसके पास पहुँच कर उन्होंने उसे समुचित सम्मान प्रदान किया।
मीरा दूर-दूर तक प्रख्यात हुई । अगणित राजकुमारियाँ तथा महारानियाँ इस धरती पर आयीं और चली गयीं। इस संसार के रंग-मंच पर अनेक रानियों, राजकुमारियों तथा महारानियों का अवतरण हुआ और वे काल के गर्भ में विलीन हो गयी; किन्तु चित्तौड़ की महारानी का स्मरण हम आज भी करते हैं। इसका कारण क्या है? क्या इसका कारण उसका सौन्दर्य है ? क्या वह मात्र अपने कवित्व-कौशल के लिए स्मरणीय है ? नहीं। इसका कारण उसका त्याग, भगवान् के प्रति उसकी अनन्य भक्ति तथा ईश्वर-साक्षात्कार है। वह श्रीकृष्ण के सम्मुख आ कर उनसे बात करती थी। अपने उस प्रियतम कृष्ण के साथ-साथ भोजन करती तथा उनके प्रेम-रस का पान करती थी। उसकी आत्मा उसके प्रियतम तथा उसके अप्रतिम आध्यात्मिक अनुभवों के गीतों का स्रोत उसके अन्तर्तम से निःसृत हुआ है। उसने कृष्ण के चरणों पर आत्म-समर्पण तथा उनके प्रति प्रेम के गीत गाये हैं।
मीरा का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक था । उसे अखिल ब्रह्माण्ड में कृष्ण के दर्शन होते थे। उसके लिए वृक्ष, पत्थर, लता, फूल, पक्षी - ये सभी कृष्णमय थे। धरती पर जब तक कृष्ण का नाम रहेगा, तब तक मीरा का नाम भी रहेगा।
मीरा सन्त, दार्शनिक तथा मनीषी थी। वह बहुमुखी प्रतिभा की स्वामिनी तथा उदारचरित्र महिला थी। ऐसे किसी व्यक्ति की खोज अत्यन्त दुष्कर है जो उसके समकक्ष हो । उसके असाधारण तथा चमत्कारपूर्ण सौन्दर्य से प्रदीप्त व्यक्तित्व में एक विलक्षण आकर्षण था । वह एक राजकुमारी थी; किन्तु अपने उच्च पद की गरिमा के अनुरूप उसे जो सुख-सुविधा तथा विलासोपकरण उपलब्ध थे, उनका परित्याग कर उसने अपने लिए निर्धनता, तप, त्याग, तितिक्षा तथा वैराग्य के जीवन का चयन कर लिया। मीरा एक सुकुमार युवती थी; फिर भी वह विघ्न-बाधाओं के बीच आध्यात्मिक मार्ग पर अपनी संकटमयी यात्रा पर निकल पड़ी। इस बीच उसने अपने सम्मुख उपस्थित विराट् अवरोधों का प्रतिरोध साहस तथा निर्भीकता के साथ किया। दृढ़ संकल्प वाली मीरा अपने निश्चय पर सदैव अटल रही।
मीरा के गीत पाठकों के मन में आस्था, साहस, भक्ति तथा ईश्वर-प्रेम का संचार करते हैं। वे जिज्ञासुओं को भक्ति-मार्ग पर अभिप्रेरित कर उनके मन में एक अद्भुत रोमांच की सृष्टि कर देते हैं जिससे हृदय द्रवित हो उठता है ।
मीरा का ऐहिक जीवन आपत्तियों तथा अशान्ति से ग्रस्त रहा। उसे उत्पीड़ित किया गया। लोगों से उसे कष्ट-ही-कष्ट मिले; किन्तु उसकी भक्ति तथा उसके आराध्य कृष्ण की कृपा से उसके अपराजेय ओज तथा मस्तिष्क के सन्तुलन का स्खलन कभी न हो सका। राजकुमारी होते हुए भी उसे भिक्षाटन करना पड़ा और कभी-कभी तो उसे मात्र जल से ही जीवन-निर्वाह करना पड़ा। उसका जीवन पूर्ण त्याग तथा भगवान् के आत्म-समर्पण का जीवन था।
मीरा में रागानुरागा अथवा रागात्मिका भक्ति थी। वह लोगों की आलोचना तथा शास्त्रीय अनुदेशों पर कभी कोई ध्यान नहीं देती थी। वह जन-पथ पर नृत्य किया करती थी। उसे शास्त्र - विहित पूजन-अर्चन का ज्ञान नहीं था । कृष्ण के प्रति उसमें सरल सहज अनुरक्ति थी। उसने साधन भक्ति का अभ्यास नहीं किया था । बाल्यावस्था से ही वह कृष्ण पर अपने प्रेम-रस का वर्षण करती आ रही थी। कृष्ण उसके पति, पिता, उसकी माता, उसके सखा, सम्बन्धी तथा गुरु थे। कृष्ण ही उसके प्राणनाथ थे। मीरा ने भक्ति के प्रारम्भिक चरणों को अपने पूर्व जन्म में ही निष्पत्र कर लिया था।
निसर्गतः मीरा एक निर्भीक महिला थी। उसका स्वभाव निष्कपट था। उसके आचरण में प्रफुल्लता, शालीनता तथा सुरुचि के दर्शन होते थे। उसने स्वयं को गिरिधर गोपाल की प्रेम-गंगा में डूबो दिया था। उसके होठों पर सर्वदा गिरिधर गोपाल का नाम रहता था। स्वप्न में भी वह स्वयं को श्रीकृष्ण में विलीन कर दिया करती थी।
अपने दिव्योन्माद में मीरा सार्वजनिक स्थान पर नृत्य करने लगती थी। उसमें काम-भाव नहीं था। उसकी उदात्त अवस्था को शब्दों में उपयुक्त विधि से आबद्ध कर पाना असम्भव है। वह प्रेम-सिन्धु में डूबी रहती थी। उसे शरीर तथा प्रतिवेश का अध्यास नहीं था। किसी भी व्यक्ति के लिए उसकी भक्ति की गहनता का माप करना असम्भव था। उसके महाभाव को समझने में कौन समर्थ था ? उसके विशाल हृदय के विस्तार का माप किसके लिए सम्भव था ?
मीरा की भक्ति-सुरभि से देश-देशान्तर तक सुगन्धमय हो उठे। उसके सम्पर्क में जो भी आया, वह उसके प्रेम-सिन्धु की बलवती लहर से प्रभावित हो गया। वह गौरांग की भाँति प्रेम तथा निष्कपटता की प्रतिमूर्ति थी । उसका हृदय भक्ति का मन्दिर तथा उसका मुख-मण्डल प्रेम का कमल-कुसुम था। उसकी दृष्टि में दयालुता, बातों में प्रेम, उसके प्रवचन में प्रफुल्लता, भाषण में शक्ति तथा गीतों में उत्साह था । वह कितनी चमत्कारपूर्ण महिला थी ! उसका व्यक्तित्व कितना आश्चर्यजनक था और उसके रूप में कैसी सम्मोहकता थी !
जीवन का दुःसह भार लिये इस संसार में घोर परिश्रम करने वाले जिन लोगों की शिराएँ क्लान्त-श्रान्त हो चुकी हैं, उन भग्न-हृदय लोगों के लिए मीरा के रहस्यवादी गीत उपशामक आषधि की भाँति हैं। उसके गीतों का मधुर संगीत श्रोताओं पर अपना सौम्य सुखद प्रभाव छोड़ जाता है। वह उनकी विसंगति तथा विस्वरता का निराकरण कर उन्हें सुख की नींद सुला देता है। मीरा की भाषा में इतनी शक्ति है कि एक घोर नास्तिक का हृदय भी उसके भक्ति गीतों से द्रवीभूत हो जायेगा।
मीरा ने संसार के रंगमंच पर अपने निर्दिष्ट कर्तव्य का पालन कुशलतापूर्वक किया। उसने लोगों को ईश्वर-प्रेम की ओर उन्मुख किया। उसने अपने पारिवारिक संकटों के झंझावातग्रस्त सिन्धु में अपनी नौका का कुशलतापूर्वक परिचालन करते हुए स्वयं को चरम शान्ति तथा अबाधित निर्भीकता के दूसरे तट अर्थात् उत्कटतम प्रेम के दिव्य राज्य में पहुँचा दिया। वह एक नारी थी। फिर भी उसके व्यक्तित्व में कितनी निर्भीकता तथा कितना साहस था। किशोरावस्था से ही वह उत्पीड़न सहती रही; किन्तु उसने कभी इसका प्रतिवाद नहीं किया। उसने संसार के मर्मभेदी उपहास तथा उसकी व्यंगात्मक आलोचनाओं को वीरतापूर्वक सहन किया। वह संसार पर अपनी अमिट छाप छोड़ गयी। उसकी कीर्ति-गाथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहेगी।
वृन्दावन से मीरा द्वारका चली गयी। वहाँ वह रणछोड़ जी के मन्दिर में भगवान् कृष्ण की प्रतिमा में अन्तर्लीन हो गयी।
🔴
FAQ
प्रश्न 1: मीरा कौन थी और उसे राधा का अवतार क्यों कहा जाता है?
उत्तर: मीरा रतनसिंह रणथोर की पुत्री तथा मेड़ता के दूदा जी की पौत्री थी। उसे राधा का अवतार कहा जाता है क्योंकि उसका प्रेम भगवान् कृष्ण के प्रति अत्यधिक और समर्पित था, जिस तरह राधा भगवान् कृष्ण के प्रियतमा थी।
प्रश्न 2: मीरा का जन्म स्थान और समय क्या था?
उत्तर: मीरा का जन्म संवत् १५५७ अथवा १४९९ ईसा में राजस्थान-स्थित मारवाड़ के एक छोटे राज्य मेड़ता के निकटस्थ कुर्खी गाँव में हुआ था।
प्रश्न 3: मीरा के पालन-पोषण में कौन भक्ति-मार्ग का प्रभाव था?
उत्तर: मीरा का पालन-पोषण वैष्णव मत-प्रभावित वातावरण में हुआ था, जिससे वह भगवान् कृष्ण के भक्ति-मार्ग की ओर उन्मुख हो गई।
प्रश्न 4: बालिका मीरा ने किसे अपने दूल्हा के रूप में स्वीकार किया और उससे क्या प्रेम किया?
उत्तर: बालिका मीरा ने भगवान् कृष्ण की प्रतिमा को अपने दूल्हा के रूप में स्वीकार किया और उससे अत्यधिक प्रेम किया। उसके समय का अधिकांश समय प्रतिमा के पूजन में ही व्यतीत होता था।
प्रश्न 5: मीरा के विवाह का आयोजन किसके साथ हुआ था और उसके पति के प्रति वह कैसी पत्नी थी?
उत्तर: मीरा के पिता ने मेवाड़-स्थित चित्तौड़ के राणा कुम्भा के साथ मीरा के विवाह का आयोजन किया था। मीरा एक कर्तव्यपरायण पत्नी थी और अपने पति के आदेश का निष्ठापूर्वक पालन करती थी।
प्रश्न 6: मीरा के धार्मिक अभियान को लेकर उसे कौन-कौन से परेशानियां झेलनी पड़ी?
उत्तर: मीरा के सम्बन्धी और राजपरिवार ने उसे धार्मिक अभियान को लेकर कई प्रकार से उत्पीड़ित किया। उसके प्रति उनके मन में आक्रोश के भाव थे और वे उसे निन्दा करने का प्रयास करते थे।
प्रश्न 7: राणा कुम्भा ने मीरा के सामने नाग का सन्देश कैसे भेजा और उसका प्रतिक्रिया थीं?
उत्तर: राणा कुम्भा ने एक टोकरी में एक नाग बन्द कर मीरा के पास भेजा और कहा कि इसमें फूलों का हार है। जब मीरा टोकरी खोली, तो उसे वहाँ भगवान् कृष्ण की मूर्ति तथा फूलों का हार मिला।
प्रश्न 8: मीरा की पूजा और भगवान् कृष्ण के प्रति उसका प्रेम कैसे था?
उत्तर: मीरा प्रतिदिन भगवान् कृष्ण की पूजा करती थी, उसके साथ सोती थी, उसके नृत्य करती थी और उसके सम्मुख मधुर गीत गाती थी। प्रतिमा के साथ उसका वार्तालाप भी होता था और उसके हृदय में भगवान् कृष्ण के प्रति अत्यधिक प्रेम था।
प्रश्न 9: मीरा के सम्बन्धी और राजपरिवार ने उसे किस असाधारण घटना का सामना करना पड़ा?
उत्तर: मीरा की ननद उदाबाई ने एक षड्यन्त्र रचकर निर्दोष मीरा की निन्दा करने लगी। उसने राणा को सूचित किया कि मीरा कुछ लोगों से गुप्त रूप से प्रेम करती है और उसने मीरा को उसके प्रेमियों के साथ मन्दिर में स्वयं देखा है। इससे उसे कई परेशानियां झेलनी पड़ीं।
प्रश्न 10: मीरा के जीवन के अंत में उसे किस असाधारण घटना का सामना करना पड़ा?
उत्तर: मीरा के जीवन के अंत में राणा ने उसे कण्टकों से भरी शय्या भेजी थी। लेकिन जब मीरा उस पर सो गई, तो उसे उस शय्या में गुलाब के फूलों की शय्या बनी दिखाई दी, जिससे राणा को आश्चर्य हुआ।
Comments
Post a Comment