हिन्दू पञ्चाङ्ग में व्यास पूर्णिमा को एक विशिष्ट तथा महत्त्वपूर्ण दिन माना जाता है। इसके उत्तरवर्ती दिन को हमारे पूर्वज आर्यावर्त के ऋषि चार मास की तपस्या के लिए वन में चले जाया करते थे। इसी स्मरणीय दिवस को व्यास, जो स्वयं ईश्वर के अवतार थे, ने ब्रह्मसूत्र की रचना प्रारम्भ की थी। हमारे प्राचीन ऋषि गुफाओं तथा वनों में तपस्या किया करते थे । किन्तु काल की परिवर्तनशीलता के कारण आजकल ऐसी सुविधाएँ सर्व-सुलभ नहीं हैं। फिर भी अभी ऐसे गृहस्थों तथा राजाओं का अभाव नहीं है जो अपने सामर्थ्य के अनुसार चतुर्थ आश्रम के सदस्यों को स्वेच्छापूर्वक ऐसी सहायता तथा सुविधाएँ प्रदान करने में समर्थ हैं। अब वनों तथा गुफाओं का स्थान साधुओं के अपने गुरुद्वारों तथा मठों के कमरों ने ग्रहण कर लिया है। मनुष्य को आवश्यकता के अनुसार स्वयं को देश-काल से समायोजित करना पड़ता है, किन्तु काल तथा परिस्थिति के कारण हमारी मानसिक अभिवृत्तियों में कोई अन्तर नहीं आना चाहिए। चातुर्मास का प्रारम्भ व्यास-पूर्णिमा से होता है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन हमसे व्यास तथा ब्रह्मविद्या के अन्यान्य गुरुओं की पूजा तथा ब्रह्मसूत्र एवं दिव्य ज्ञान के संवाहक अन्य पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन को प्रारम्भ करने की आशा की जाती है।
हमारे पुराणों में कई व्यासों का उल्लेख है। कहा जाता है कि द्वापर युग के अन्त में कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्म हुआ था और इसके पूर्व अट्ठाइस व्यास हो चुके थे। कृष्ण द्वैपायन का जन्म पाराशर ऋषि तथा सत्यवती देवी के संयोग से कुछ विलक्षण तथा आश्चर्यप्रद परिस्थितियों में हुआ था। पाराशर एक महान् ज्ञानी तथा ज्योतिष शास्त्र के अधिकारिक विद्वान् थे। उनका ग्रन्थ पाराशर होरा आज भी ज्योतिष शास्त्र का एक पाठ्य-ग्रन्थ माना जाता है। उन्होंने एक स्मृति की भी रचना की थी जिसे पाराशर स्मृति कहा जाता है। इस ग्रन्थ के प्रति लोगों के हृदय में श्रद्धा तथा सम्मान की इतनी प्रबल भावना है कि समाज-शास्त्र तथा नीति-शास्त्र के आधुनिक लेखक इसके उद्धरण प्रस्तुत किया करते हैं। पाराशर इस तथ्य से अवगत थे कि एक घटिका - विशेष में जन्म ग्रहण करने वाली शिशु युग का महानतम व्यक्ति होगा। वह स्वयं भगवान् विष्णु का एक अंश होगा। उस दिन पाराशर नौका यात्रा कर रहे थे। उन्होंने केवट से उस आसन्न मांगलिक मुहूर्त की बात की। केवट की एक पुत्री थी जो पूर्ण वयस्क थी और जिसके विवाह की प्रतीक्षा की जा रही थी। वह ऋषि की महानता तथा पवित्रता से प्रभावित था। उसने अपनी पुत्री को उनके समक्ष पाणिग्रहण के लिए प्रस्तुत कर दिया। हमारे व्यास ने इसी वैवाहिक सम्बन्ध के फल-स्वरूप जन्म-ग्रहण किया। कहा जाता है कि उनका जन्म स्वयं भगवान् शिव की कृपा से हुआ था जिन्होंने एक सन्त तथा निम्नजातीय कुलोत्पन्न एक ज्ञानी कन्या के संयोग को अपना आशीर्वाद प्रदान किया था।
बाल्यावस्था में ही व्यास ने अपने माता-पिता के समक्ष अपने जीवन के रहस्य का उद्घाटन करते हुए कह दिया कि उन्हें अखण्ड तप के लिए वन-गमन करना होगा। पहले उनकी माता उनसे सहमत नहीं हुई, किन्तु तत्पश्चात् उन्होंने उन्हें इस शर्त पर अनुमति प्रदान कर दी कि उन्हें उनकी उपस्थिति की जब कभी भी कामना होगी, वे उनके समक्ष उपस्थित हो जायेंगे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके माता-पिता तथा स्वयं वे कितने अधिक दूरदर्शी थे। पुराणों के अनुसार उन्होंने अपने इक्कीसवें गुरु ऋषि वासुदेव से दीक्षा ग्रहण की और सनक, सनन्दन तथा अन्यान्य आचार्यों के चरणों में शरण ग्रहण कर शास्त्राध्ययन किया। उन्होंने लोक-कल्याण के लिए वेदों को व्यवस्थित किया तथा श्रुतियों के त्वरित तथा सरल अर्थ-ग्रहण के लिए ब्रह्मसूत्रों की रचना की। उन्होंने महाभारत की भी रचना की जिससे शूद्र, स्त्री तथा अल्पबुद्धि जन भी सर्वोच्च ज्ञान का अर्थ-ग्रहण सरलतम विधि से कर सकें। व्यास अष्टादश पुराणों के भी प्रणेता थे। उन्होंने उपाख्यानों तथा प्रवचनों के माध्यम से इनकी प्रशिक्षण-पद्धति का सूत्रपात किया। इस प्रकार उन्होंने कर्म, उपासना तथा ज्ञान, इन तीन मार्गों की व्यवस्था की। अपनी माता के सन्तति-प्रवाह को अक्षुण्ण रखने तथा धृतराष्ट्र, पाण्डु एवं विदुर के जन्म का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। ये उन्ही की सन्तान थे । व्यास का अन्तिम ग्रन्थ भागवत था। इसके लेखन की प्रेरणा उन्हें देवर्षि नारद से प्राप्त हुई। देवर्षि ने उनको इसके प्रणयन का परामर्श दिया और कहा कि इसके अभाव में उन्हें अपने जीवन के लक्ष्य की सम्प्राप्ति नहीं हो सकेगी।
व्यास को समस्त हिन्दू चिरंजीवी मानते हैं। इनके अनुसार वे अभी भी जीवित हैं। और अपने भक्तों के कल्याण के लिए विश्व-भ्रमण किया करते हैं। कहा जाता है कि वे निष्कपट तथा निष्ठावान् व्यक्तियों के समक्ष प्रकट भी हुआ करते हैं। शंकराचार्य ने मण्डन मिश्र के घर में उनका दर्शन किया था। कई और लोगों को भी उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि व्यास लोक-कल्याण के लिए अभी भी विद्यमान् हैं। हमें अपने लिए तथा इसके साथ ही समस्त संसार के हितार्थ उनके आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।
यह सर्वविदित है कि हमारे पूर्वजों द्वारा विकसित विचारों की छह शास्त्र सम्मत तथा महत्त्वपूर्ण पद्धतियाँ हैं जिन्हें षड्-दर्शन कहा जाता है। ये षड्-दर्शन हैं-सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा अथवा वेदान्त इन दर्शनों के भिन्न-भिन्न अभिमत हैं । कालान्तर में इन विचार पद्धतियों का अर्थ-ग्रहण दुष्कर होता गया। अतः इनके नियमन के लिए सूत्रों की रचना की गयी। सीमित शब्दों में प्रणीत इन ग्रन्थों को संस्कृत में सूत्र कहा जाता है। इनका अभिप्राय स्मरण शक्ति को सम्यक् संकेत तथा प्रत्येक विषय पर शास्त्रार्थ में सहायता प्रदान करना है। पद्मपुराण में सूत्र को पारिभाषित करते हुए कहा गया है कि सूत्र संक्षिप्त, स्पष्ट तथा असन्दिग्ध होना चाहिए। किन्तु सूत्रों को इस सीमा तक संक्षिप्त कर दिया गया है कि सूत्र विशेषतः ब्रह्मसूत्र दुरूह हो गये हैं। आज हम एक ही सूत्र को विभिन्न रूपों में व्याख्यायित होते देखते हैं। व्यास या वादरायण (व्यास को एक अतिरिक्त नाम वादरायण से भी अभिहित किया गया है) द्वारा रचित ब्रह्मसूत्रों को वेदान्त-सूत्र भी कहते हैं; क्योंकि इनमें वेदान्त की ही विवेचना की गयी है। इन सूत्रों को चार अध्यायों में और पुनः इन चार अध्यायों में से प्रत्येक अध्याय को चार अनुभागों में विभाजित किया गया है। यह एक रोचक तथ्य है कि सूत्रों का प्रारम्भ तथा अन्त उन सूत्रों से होता है कि जिनका अर्थ है कि ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप के विचार के फल स्वरूप प्रत्यावर्तन नहीं होता । इसका तात्पर्य यह है कि सूत्रों के निहितार्थ के अनुरूप जीवन-यापन से मनुष्य अमरत्व को प्राप्त होता है और संसार में उसका प्रत्यावर्तन नहीं होता। परम्परा के अनुसार व्यास को इन सूत्रों का प्रणेता माना जाता है। शंकराचार्य ने अपने भाष्य में गीता तथा महाभारत को व्यास-प्रणीत एवं ब्रह्मसूत्रों को वादरायण-प्रणीत बताया है। उनके अनुयायी वाचस्पति, आनन्दगिरि तथा अन्य लोग इन दोनों को एक ही व्यक्ति मानते हैं। रामानुज, वल्लभ, निम्बार्क तथा कुछ अन्य लोग इन तीनों ग्रन्थों का प्रणेता व्यास को ही मानते हैं शांकर भाष्य सूत्रों का प्राचीनतम भाष्य है। इसके पश्चात् रामानुज, वल्लभ, निम्बार्क तथा कुछ अन्य आचार्यों ने भी इन सूत्रों पर अपने भाष्यों की रचना की । इन्होंने अपने भाष्यों के माध्यम से अपने-अपने मतों का प्रतिपादन किग्रा । ब्रह्म इस जगत् का कारण है तथा ब्रह्मज्ञान से आत्यन्तिक मुक्ति की सम्प्राप्ति होती है, इन दो है बातों पर इन पाँचों आचार्यों का अधिकांशतः मतैक्य है, किन्तु ब्रह्म के स्वरूप, व्यष्टि आत्मा तथा सर्वोच्च आत्मा के पास्परिक सम्बन्ध तथा मुक्तावस्था में जीव की दशा के सम्बन्ध में इनमें मत- वैभिन्य है। इनमें से कुछ के अनुसार मुक्ति-प्राप्ति का मुख्य साधन शंकर द्वारा अनुमोदित ज्ञान न हो कर भक्ति हैं।
व्यास का जीवन ज्ञान के प्रचार-प्रसार के निमित्त जन्म-ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अप्रतिम उदाहरण है । हमारी कामना है कि हम उनकी रचनाओं की अर्थवत्ता के अनुरूप जीवन-यापन करें !
FAQ
1. प्रश्न: व्यास पूर्णिमा क्या है?
उत्तर: व्यास पूर्णिमा हिन्दू पंचांग के अनुसार एक महत्वपूर्ण दिन है, जो ऋषि व्यास, जिसे वेदव्यास भी कहा जाता है, को समर्पित होता है। यह दिन हिन्दू माह आषाढ़ (जुलाई-अगस्त) की पूर्णिमा को माना जाता है। इस दिन लोग ऋषि व्यास और अन्य प्रतिष्ठित गुरुओं को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और ब्रह्मसूत्र और अन्य प्राचीन पाठ्यक्रमों के अध्ययन की शुरुआत करते हैं।
2. प्रश्न: ऋषि व्यास कौन थे?
उत्तर: ऋषि व्यास, जिसे वेदव्यास भी कहा जाता है, हिंदू धर्म के प्रमुख ग्रंथ वेदों के व्यासकर्ता थे। उन्होंने ब्रह्मसूत्रों और महाभारत जैसी महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। उन्हें संपूर्ण भारतीय वेदांत और धर्मिक साहित्य के आदिकावि के रूप में सम्मानित किया जाता है।
3. प्रश्न: व्यास पूर्णिमा का महत्व क्या है?
उत्तर: व्यास पूर्णिमा को विशेष महत्व दिया जाता है क्योंकि इस दिन ऋषि व्यास ने ब्रह्मसूत्र की रचना की थी, जो वेदांत दर्शन के मूल ग्रंथों में से एक है। इस दिन को गुरु-शिष्य परम्परा के प्रतीक रूप में भी माना जाता है, जहां गुरुओं के सम्मान और उनके ज्ञान की प्रशंसा की जाती है।
4. प्रश्न: व्यास पूर्णिमा को कैसे मनाया जाता है?
उत्तर: व्यास पूर्णिमा के दिन, लोग मंदिरों में जाकर ऋषि व्यास को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके चरणों में पूजा-अर्चना करते हैं। वेदांत संस्कृति के साथ, व्यास पूर्णिमा पर ज्ञान प्रशासन के आयोजन, संस्कृत भाषण एवं कार्यक्रम, वेदांत ग्रंथों के पाठ, धार्मिक संगत में सत्संग जैसी गतिविधियाँ भी होती हैं।
5. प्रश्न: ऋषि व्यास जी आज भी जीवित हैं?
उत्तर: हिन्दू धर्म के अनुसार, ऋषि व्यास चिरंजीवी माने जाते हैं और आज भी संसार में उनके प्रशिष्यों को संदेश और मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। यह धार्मिक धारणा है कि वे विश्वभ्रमण करते हैं और भक्तों की कल्याण के लिए सदैव उपलब्ध रहते हैं।
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