संन्यास ग्रहण के पूर्व स्वामी दयानन्द का नाम मूलशंकर था। उनका जन्म १८२४ ई. में गुजरात के एक छोटे राज्य की राजधानी मोर्वी में हुआ। उनके पिता अम्बाशंकर गहन धार्मिक प्रवृत्ति के एक समृद्ध ब्राह्मण भूमिपति तथा बैंकर थे ।
पाँच वर्ष की आयु में मूलशंकर को देवनागरी लिपि की शिक्षा दी गयी। पवित्र ग्रन्थों के अनेक श्लोकों को उन्होंने कण्ठस्थ कर लिया था। आठ वर्ष की आयु में उनका उपनयन-संस्कार हुआ। उनके मन में आध्यात्मिक जागरूकता का श्रीगणेश शिवरात्रि की रात्रि में हुआ था। उस समय उनकी आयु चौदह वर्ष थी ।
पाँच वर्ष की आयु में मूलशंकर को देवनागरी लिपि की शिक्षा दी गयी। पवित्र ग्रन्थों के अनेक श्लोकों को उन्होंने कण्ठस्थ कर लिया था। आठ वर्ष की आयु में उनका उपनयन-संस्कार हुआ। उनके मन में आध्यात्मिक जागरूकता का श्रीगणेश शिवरात्रि की रात्रि में हुआ था। उस समय उनकी आयु चौदह वर्ष थी ।
मूलशंकर के चाचा तथा उनकी बहन की मृत्यु ने उनके हृदय को आलोड़ित कर दिया । इस कारुणिक घटना ने उनके समक्ष जीवन की अल्पकालिकता एवं मानवीय आकांक्षाओं की अर्थहीनता को अनावृत कर दिया। मूलशंकर को इस तथ्य की स्पष्ट अनुभूति हो गयी कि जागतिक जीवन एक क्षणिक प्रदर्शन मात्र है
मूलशंकर वाराणसी जा कर संस्कृत साहित्य तथा संस्कृत के पवित्र ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहते थे; किन्तु उनके पिता ने उनके इस प्रस्ताव को अस्पष्ट शब्दों में अस्वीकार करते हुए उन्हें अध्ययन के लिए निकटस्थ गाँव की पाठशाला में भेज दिया।
जब मूलशंकर के पिता ने अपने पुत्र के विवाह का आयोजन किया, तब मूलशंकर अपने घर का परित्याग कर अन्यत्र चले गये। वह विवाह करना नहीं चाहते थे। वह विवाह को एक बन्धन समझते थे।
मूलशंकर सयाला (Sayala) नामक एक गाँव में गये। वहाँ किसी धार्मिक सम्प्रदाय के एक शीर्षस्थ ब्रह्मचारी रहते थे। वहाँ उन्होंने उनसे स्वयं को नैष्ठिक ब्रह्मचारियों के वर्ग में सम्मिलित कर लेने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना स्वीकृत हुई और उन्हें गैरिक वस्त्र प्रदान कर शुद्ध चैतन्य के नाम से अभिहित कर दिया गया।
उधर सिद्धपुर में प्रत्येक वर्ष एक धार्मिक मेले का आयोजन होता था। अपने परिभ्रमण-काल में एक बार मूलशंकर भी उस मेले में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट एक वैरागी से हो गयी जो उनके पिता का परिचित था। उसने उनको एक पत्र लिख कर मूलशंकर का पता बता दिया। अम्बाशंकर तत्काल सिद्धपुर जा पहुँचे जहाँ एक मन्दिर में मूलशंकर से उनकी भेंट हुई। पुत्र को गैरिक परिधान में देख कर उन्हें अत्यधिक क्रोध हुआ। उन्होंने उस गैरिक परिधान को चीर-फाड़ कर उनके भिक्षा पात्र को तोड़ दिया। इसके पश्चात् मूलशंकर को नये वस्त्र दिये गये और उनकी रखवाली के लिए नौकरों को नियुक्त कर दिया गया। रात में नौकरों के प्रगाढ़ निद्रा में निमग्न हो जाने पर मूलशंकर एक पीपल के पेड़ पर चढ़ गये जहाँ उन्होंने रात-भर अपने-आपको छिपाये रखा। दूसरे दिन उनके पिता तथा उनके नौकरों ने उनकी बहुत खोज की; किन्तु मूलशंकर का पता नहीं चला। पिता नौकरों के साथ घर लौट गये।
मूलशंकर ने अहमदाबाद तथा बड़ौदा की यात्रा की। इसके पश्चात् वह पवित्र नर्मदा तट पर स्थित एक स्थान पर गये। वहाँ परमहंस परमानन्द नामक एक संन्यासी के मार्ग-दर्शन में उन्होंने वेदान्त के अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया। उनको वैयक्तिक आत्मा तथा विश्वात्मा या सर्वोच्च आत्मा के तादात्म्य के प्रति दृढ़ आस्था थी ।
मूलशंकर को स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती ने संन्यास आश्रम में दीक्षित किया और अब उनका नाम दयानन्द सरस्वती हो गया।
स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन के आगामी बीस वर्ष पर्यटन, तीर्थ-यात्रा, तप तथा योगाभ्यास में व्यतीत किये। उन्होंने उत्तर भारत के समस्त पवित्र स्थानों की यात्रा की। उनके सतत परिभ्रमण के फल-स्वरूप उनमें तितिक्षा की शक्ति जाग्रत हो गयी थी। उनको प्रायः निराहार रह कर वन में भूमि- शयन करना पड़ता था ।
छत्तीस वर्ष की आयु में दयानन्द ने मथुरा के लिए प्रस्थान किया। वहाँ उन्होंने प्रख्यात संन्यासी तथा संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान् स्वामी विरजानन्द से भेंट की। स्वामी जी जन्मतः अन्धे थे जो चेचक के प्रकोप से नेत्रहीन हो चुके थे। वह अत्यन्त रुक्ष तथा कठोर स्वभाव के सन्त थे। वह अपने समय का अधिकांश ध्यान में व्यतीत करते थे।
स्वामी दयानन्द तथा स्वामी विरजानन्द के पारस्परिक सम्बन्ध ने दयानन्द के जीवन के दिशा-निर्धारण में अपूर्व योगदान दिया। स्वामी दयानन्द के महान् कार्य स्वामी विरजानन्द के प्रेरणाप्रद व्यक्तित्व से ही सम्भव हो सके। स्वामी दयानन्द को स्वामी विरजानन्द के दण्ड-प्रहार से कई बार आहत होना पड़ा था।
स्वामी दयानन्द सरस्वती गुरु-सेवा में अत्यधिक परिश्रम करते थे । वह उनके लिए बहुत दूर से पानी लाते, उनके कमरे में झाडू देते और उनका वस्त्र-प्रक्षालन करते। वह अपने गुरु के सान्निध्य में ढाई वर्षों तक रहे।
अन्ततः विदा का दिन आ ही गया। हाथ में कुछ लौंग ले कर दयान्द गुरु पहुँचे। उन्होंने उनसे कहा- " के पास -"गुरुदेव, मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ। मेरे पास आपको देने के लिए इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।" स्वामी विरजानन्द ने कहा- “तुम्हारे पास जो कुछ भी है, उसे तुम स्वयं से विलग कर लो। मैं इसकी उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।" स्वामी दयानन्द ने कहा—“पूज्यवर गुरुदेव, जो कुछ भी मेरा है, वह आपका ही है। मैंने अपना जीवन तक आपकी सेवा में समर्पित कर दिया है।" विरजानन्द ने कहा—“जो शिक्षा तुमने प्राप्त की है, उसका समुचित उपयोग करो । सर्वत्र अपने ज्ञान का प्रचार-प्रसार करो। अन्धकार का उच्छेदन करो। हिन्दू अपने यथार्थ धर्म को विस्मृत कर चुके हैं । उनको यथार्थ वैदिक धर्म की शिक्षा दो ।"
दयानन्द ने अवनत-शिर हो कर अपने गुरु को प्रणाम किया और वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के लिए अपने जीवन को समर्पित कर देने की शपथ ग्रहण की। अपने गुरु से विदा ले कर वह तत्काल अपने कार्य में संलग्न हो गये।
स्वामी दयानन्द आगरा गये। वहाँ उन्होंने कुछ प्रवचन दिये। इसके पश्चात् वह ग्वालियर और जयपुर गये। जयपुर के महाराजा ने उनका श्रद्धा तथा उत्साह पूर्वक स्वागत किया।
दयानन्द ने हरिद्वार, वाराणसी तथा कलकत्ता में भाषण दिये। वह देवेन्द्रनाथ टैगोर और बाबू केशवचन्द्र सेन से मिले। उन्होंने संस्कृत तथा हिन्दी में प्रवचन दिये। मूर्ति-पूजा के विरोध में प्रवचन देने के कारण उन्हें रूढ़िवादी हिन्दुओं के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा।
स्वामी दयानन्द ने इलाहाबाद और मुम्बई में भी प्रवचन दिये। मुम्बई में उन्होंने प्रथम आर्य समाज की स्थापना की। इसके पश्चात् वह पुणे गये जहाँ हिन्दू क्लब के भवन में उन्होंने एक प्रवचन-माला का प्रारम्भ किया। पण्डितों ने उनकी तथा उनके प्रवचनों की कटु निन्दा की। उन पर आक्रमण भी किया गया; किन्तु पुलिस की सामयिक सहायता के कारण उनके जीवन की रक्षा हो गयी।
इसके पश्चात् वह पंजाब गये। लाहौर में उनको महान् सफलता प्राप्त हुई। उन्होंने पंजाब के लगभग प्रत्येक महत्त्वपूर्ण नगर में आर्य समाज की स्थापना की। तत्पश्चात् वह उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान गये जहाँ उन्होंने आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। जोधपुर के महाराजा यशवन्त सिंह उन दिनों एक वेश्या के प्रेम-पाश में आबद्ध हो गये थे। स्वामी दयानन्द ने महाराजा को उसके परित्याग का अनुरोध किया। इसके फल-स्वरूप वह वेश्या उनसे रुष्ट हो गयी और उसने उनके भोजन में विष मिला दिया जिसके परिणाम-स्वरूप तीस अक्तूबर १८८३ ई० में दीपावली की रात्रि में अजमेर में स्वामी दयानन्द का देहान्त हो गया।
तर्कशास्त्र में स्वामी दयानन्द का कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं था और वाद-विवाद में वह अद्वितीय थे । उनकी तर्क-शक्ति चमत्कारपूर्ण थी और वह एक महान् वक्ता थे।
स्वामी दयानन्द का ‘सत्यार्थ प्रकाश' एक सुप्रसिद्ध पुस्तक है। इसमें स्वामी दयानन्द के उपदेश संग्रहित हैं
आर्य समाज ने भारत में जो सामाजिक सेवा की है, वह महान् है । इसके प्रयत्न से कई केन्द्रों पर अनेक विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा अनाथालयों की स्थापना हुई। गुरुकुल काँगड़ी तथा देहरादून का डी. ए. वी. कालेज आदर्श संस्थाएँ हैं। गुरुकुल काँगड़ी के विकास में स्वामी दयानन्द के शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने शुद्धि-आन्दोलन का सूत्रपात किया था। इसमें ईसाई इस्लाम-धर्म ग्रहण कर चुके हिन्दुओं को पुनः हिन्दू-समाज में सम्मिलित कर लिया जाता था।
स्वामी श्रद्धानन्द एक स्वतन्त्र विचार के पुरुष थे। उनमें अदम्य साहस था । जो कोई भी बात उन्हें असंगत लगती थी, उसका वह स्पष्ट रूप से खण्डन कर देते थे । वह एक ऊर्ध्वसित व्यक्तित्व के स्वामी थे। अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा तथा सत्य के लिए अपनी आत्यन्तिक तृष्णा के कारण उन्होंने सांसारिकता का परित्याग कर स्वयं को वेदाध्ययन एवं नियमित नैतिक तथा आध्यात्मिक आत्मानुशासन के अभियान में संलग्न कर लिया।
स्वामी श्रद्धानन्द ने ऋग्वेद पर एक विद्वत्तापूर्ण भाष्य लिखा। वह बहुत दिनों तक आर्य समाज के नेता रहे। उनके सन्त स्वभाव, गत्यात्मक व्यक्तित्व, विशाल हृदय, समाज और राष्ट्र के प्रति उत्कट प्रेम तथा उनकी संगठन-शक्ति के कारण आर्य समाज की गतिविधि के प्रसार को महान् योगदान प्राप्त हुआ। श्रद्धानन्द का देहान्त १९२६ ई. में हुआ। उस समय उनकी आयु इकहत्तर वर्ष थी। उन्होंने एक शहीद की भाँति प्राण त्याग किया।
स्वामी दयानन्द के उपदेश
१. सर्वोच्च या निरपेक्ष सत्ता ही समस्त यथार्थ ज्ञान का स्रोत है।
२. ईश्वर पूर्ण सत् तथा पूर्ण सौन्दर्य है। वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् तथा सर्वज्ञ है। वह निराकार, न्यायी, परोपकारी, अज, अनन्त, असीम, अविकारी, अनादि, सर्वभूतों का अधिष्ठान, अव्यय, अक्षर, निर्भय, शाश्वत एवं समग्र सृष्टि का अभिकल्पक तथा नियन्ता है। एकमात्र वही उपास्य है।
३. वेद यथार्थ ज्ञान का ग्रन्थ है। इसका अध्ययन, इसका अध्यापन, इसके मन्त्रों का श्रवण तथा इसका प्रशिक्षण—ये सभी प्रत्येक आर्य के सर्वोपरि कर्तव्य हैं।
४. सत्य को स्वीकार तथा मिथ्या का परिहार करो।
५. सत्यासत्य के सम्यक् अनुसन्धान के पश्चात् धर्मानुकूल आचरण करो।
६. आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य संसार का हित-चिन्तन तथा प्रत्येक व्यक्ति के शारीरिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक उत्थान को सुनिश्चित करता है।
७. संसार के प्रति तुम्हारा आचरण प्रेम, धर्मनिष्ठा तथा न्याय से नियन्त्रित होना चाहिए।
८. अज्ञान को नष्ट कर अपने दैहिक तथा आध्यात्मिक विकास की सम्भावनाओं को परिपुष्ट करो।
९. सबके हित में अपने हित का दर्शन करो।
१०. सबके कल्याण-पथ को प्रशस्त करने वाले सुविचारित सामाजिक नियमों का पालन करो।
आर्य समाज के नियम
FAQ
1. स्वामी दयानन्द सरस्वती का मूल नाम क्या था और उनका जन्म कब और कहाँ हुआ था?
स्वामी दयानन्द सरस्वती का मूल नाम मूलशंकर था। उनका जन्म १८२४ ई. में गुजरात के एक छोटे राज्य मोर्वी में हुआ था।
2. स्वामी दयानन्द के परिवार का पृष्ठभूमि और उनके शिक्षण का विकास कैसा था?
स्वामी दयानन्द के पिता अम्बाशंकर गहन एक समृद्ध ब्राह्मण भूमिपति और बैंकर थे, जिनकी धार्मिक प्रवृत्ति थी। उन्हें पाँच वर्ष की आयु में देवनागरी लिपि की शिक्षा मिली और पवित्र ग्रंथों के श्लोकों का अध्ययन किया गया।
3. स्वामी दयानन्द के बचपन की कौन सी घटना उनके आध्यात्मिक जागरण को प्रेरित करी थी?
उनके बचपन की उम्र में हुई अपने चाचा और बहन की मृत्यु ने उनके हृदय को आलोड़ित किया और उन्हें जीवन की अल्पकालिकता और मानवीय आकांक्षाओं की अर्थहीनता का अनुभव हुआ। इससे उन्हें जागतिक जीवन की क्षणिकता का अनुभव हुआ।
4. स्वामी दयानन्द का संन्यास ग्रहण कैसे हुआ और उनका नया नाम क्या रखा गया था?
स्वामी दयानन्द को स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती ने संन्यास आश्रम में दीक्षित किया और उनका नया नाम दयानन्द सरस्वती रखा गया।
5. स्वामी दयानन्द के जीवन के दौरान क्या-क्या महत्वपूर्ण कार्य किए गए थे?
स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन में अनेक तीर्थ-यात्रा, प्रवचन, विद्वत्सभा, और धार्मिक प्रसार कार्यों में समय व्यतीत किया। उन्होंने संस्कृत और हिन्दी में प्रवचन दिए, वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य किया, और मूर्ति-पूजा के विरोध में उठे।
6. स्वामी दयानन्द सरस्वती की मृत्यु कैसे हुई?
स्वामी दयानन्द सरस्वती की मृत्यु 30 अक्टूबर, 1883 को अजमेर, राजस्थान में हुई।
7. स्वामी दयानन्द के निधन के बाद, उनके विचार और संदेश का क्या हुआ?
स्वामी दयानन्द के निधन के बाद, उनके विचार और संदेश उनके शिष्यों और अनुयायियों द्वारा जीवंत रखे गए। उनके विचारों ने भारतीय समाज में धार्मिक जागरूकता और समाजिक सुधार के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।
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