गुरु अंगद देव || दूसरे सिख गुरु
गुरु अंगद (लाहिना) का जन्म १५०४ ई. में पंजाब के फिरोजपुर जनपद में स्थित मुक्तसर के निकटस्थ सरायमत्ता में हुआ था। सरायमत्ता को आजकल सरायनागा कहा. जाता है। लाहिना फेरू नामक एक व्यवसायी के पुत्र थे। वह खत्री थे। उन्होंने खीवी (Khive) नामक एक महिला से विवाह किया जिससे उनके अमरो नामक एक पुत्री तथा दासू (Dasu) और दातू (Datu) नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।
लाहिना ज्वालामुखी की देवी दुर्गा के भक्त थे। वह देवी के मन्दिर में नियमित रूप से प्रतिवर्ष जाते थे। एक दिन उन्होंने खदूर के जोधा नामक एक सिक्ख को गुरु नानक की ये पंक्तियाँ गाते हुए सुना- "उस ईश्वर का सतत स्मरण करते रहो जिसकी उपासना से तुम्हें आनन्द प्राप्त होगा। दुष्कर्म का सर्वथा परित्याग कर दो। अपनी दृष्टि में शुभकर्मी बनो । पासे इस प्रकार फेंको जिससे ईश्वर के समक्ष तुम्हें कुछ खोना न पड़े। नहीं, नहीं, तुम पासे इस प्रकार फेंको जिससे तुम्हें कुछ लाभ हो सके।" लाहिना के लिए यह गीत मर्मस्पर्शी सिद्ध हुआ। उन्होंने जोधा से उस गीत के रचयिता का नाम पूछा। उनको ज्ञात हुआ कि नानक जोधा के गुरु हैं। इसके बाद करतारपुर जा कर उन्होंने गुरु नानक के दर्शन किये। अब उनमें दुर्गा-पूजन की इच्छा नहीं रही। उन्होंने नानक की सेवा का निश्चय कर लिया।
एक अवसर पर लाहिना ने गुरु को खेत में घास के तीन गट्ठरों को उठा पाने मे असमर्थ देखा । गुरु उन गट्ठरों को अपनी गायों के लिए ले जाना चाहते थे जो घर पर थी घास भीगी तथा कीचड़ में सनी थी। गुरु-पुत्र श्रीचन्द तथा लक्ष्मणदास एवं वहाँ उपस्थित अन्य सिक्खों ने भी उन गट्ठरों को ले जाने में अपनी अस्वीकृति व्यक्त कर दी; किन्तु लाहिना ने उन तीनों गट्ठरों को अपने शिर पर उठा कर गुरु के घर पहुँचा दिया।नानक की पत्नी ने इस बात के लिए अपने पति की भर्त्सना की कि उन्होंने एक आगन्तुक पर कीचड़ लगे गट्ठरों को लाद दिया जिससे उसके वस्त्रों में भी कीचड़ लग गया। गुरु ने कहा- “यह कीचड़ नहीं, भगवान् के दरबार से प्राप्त केसरिया रङ्ग जिसे स्वर्ग के लिए चयनित लोगों को दिया जाता है।" उधर नानक के मुँह से ये शब्द निकले और इधर लाहिना के वस्त्रों पर पड़े कीचड़ का रङ्ग केसरिया हो गया। आस्थावान् सिक्ख इन तीन गट्ठरों को आध्यात्मिकता, सांसारिकता तथा गुरु-गौरव का प्रतीक मानते हैं।
लाहिना अत्यन्त निष्ठावान् तथा निष्कपट थे। गुरु नानक के प्रति उनमें गहन भक्ति-भाव था। उन्होंने गुरु के प्रति अपनी निष्ठा तथा भक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत किया था। गुरु नानक ने उनको १५३७ ई. में अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। लाहिना गद्दी पर बैठ गये। गुरु नानक ने उनके समक्ष पाँच पैसे तथा एक नारियल रखा और उनके सम्मुख अवनत शिर हो कर चार बार उनकी परिक्रमा की। इसके बाद उन्होंने घोषित कर दिया कि अब इसी क्षण से उनकी आत्मा लाहिना के शरीर में प्रविष्ट हो गयी है और अब दोनों में किसी को भेद दर्शन नहीं करना चाहिए। उसी अवसर पर लाहिना का नाम अड्डा खुद अर्थात् अंगद (मेरा अपना शरीर) हो गया।
इस प्रकार सिक्खों में यह विश्वास बद्धमूल हो गया कि नानक का आध्यात्मिक प्रकाश प्रत्येक उत्तराधिकारी गुरु को उत्तराधिकार में प्राप्त होता आया है।
गुरु अङ्गद नानक के सर्वाधिक निष्ठावान् सेवक थे। उन्होंने अपने के गुरु अनुदेशों का शब्दशः पालन किया। वह अपने महान गुरु के सिद्धान्तों के प्रति सर्वदा निष्ठावान् रहे। वह रुक्ष मूंज की रस्सी बट कर अपना जीविकोपार्जन करते थे। वह सर्वदा ध्यानस्थ रहते थे । वह प्रत्येक मत के लोगों को भोजन देते थे। उन्होंने अपनी भक्ति-साधना तथा ध्यान के अनुभवों को लिपिबद्ध कर लिया था जिन्हें बाद में 'आदि ग्रन्थ' में सम्मिलित कर लिया गया। उनको जो कार्य भार सौंपा गया था, उसका निष्पादन उन्होंने पूर्ण मनोयोगपूर्वक किया। वह एक अत्यन्त प्रतिभा-सम्पत्र व्यक्ति नहीं थे; किन्तु अपने गुरु तथा गुरु-मित्र बाला से वह जो कुछ भी सुनते थे, उसे लिपिबद्ध करते जाते थे । अङ्गद गुरु-गद्दी पर लगभग तेरह वर्षों तक रहे । १५५३ ई. में खदूर में उनका देहान्त हुआ ।
सम्राट् हुमायूँ को शेरशाह ने हिन्दुस्तान से पलायन करने के लिए विवश कर दिया था। हुमायूँ लाहौर में उस सिद्ध पुरुष या सिद्ध सन्त की खोज में आया जो शत्रु द्वारा विजित उसके राज्य की पुनः सम्प्राप्ति में उसे अपना सहयोग प्रदान कर सके। उसने अंगद के विषय में कुछ सुना था। अतः वह उनके दर्शन के लिए खदूर पहुँच गया। वह उनके लिए प्रचुर भेंट ले कर इस आशा में गया था कि मुझे गुरु का अनुग्रह प्राप्त हो जायेगा। उस समय अंगद गहन ध्यान में लीन थे। अतः हुमायूँ को कुछ देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ी जिससे रुष्ट हो कर उसने अपनी तलवार की मुठ पर हाथ रखा। वह अंगद का शिर काटना चाहता था; किन्तु उसकी तलवार म्यान से बाहर ही नहीं निकल पायी। अंगद ने कहा- “जब तुमको शेरशाह के विरुद्ध तलवार उठानी चाहिए थी, तब तुमने तलवार नहीं उठायी, लेकिन आज जब तुम एक सन्त के समक्ष खड़े हो, तब तुम उसे प्रणाम न कर तुम उस पर तलवार उठा रहे हो।"
इस पर हुमायूँ शान्त हो गया और उनसे क्षमा-याचना की। अंगद ने कहा- “यदि तुमने अपना हाथ अपनी तलवार की मूठ पर नहीं रखा होता, तो तुम्हें तुम्हारा राज्य मिल गया होता; लेकिन अब तुम्हें फारस जाना होगा। वहाँ से लौटने पर तुम्हारा राज्य तुम्हें पुनः प्राप्त हो जायेगा । "
यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। हुमायूँ को भारत से बाहर निकाल दिया गया। शेरशाह की कर लिया। मृत्यु के पश्चात् भारत लौट कर उसने अपने राज्य पर पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया।
माना नामक एक सिक्ख अंगद का रसोइया था। विलासिता के कारण वह बहुत स्थूलकाय तथा दम्भी हो गया था। वह अन्य सेवकों से सदा झगड़ता रहता था। वह अकर्मण्य तथा आलसी हो गया था। एक दिन उससे रुष्ट हो कर गुरु ने कहा- "माना, वन में जा कर तुम स्वयं को अग्नि में भस्म कर दो।" माना ने वन में जा कर लकड़ियाँ एकत्र की और उसमें आग लगा दी। उसकी ज्वाला जैसे-जैसे ऊपर उठती गयी, वैसे-वैसे माना का अग्नि में कूद कर भस्म हो जाने का विचार क्षीणतर होता गया। उस समय एक चोर ने वहाँ आ कर माना से पूछा कि वह यहाँ क्या कर रहा है। माना ने उस चोर को अपने विषय में सब कुछ बता दिया। उसने उस चोर के समक्ष अपने गुरु की भूरि-भूरि प्रशंसा की जिन्हें वह श्रद्धेय समझता रहा था। चोर माना के इस कथन से अत्यन्त प्रभावित हुआ। उसने चुराये गये स्वर्णाभूषणों की गठरी उसे दे दी । माना ने उसको आश्वासन दिया था कि उस अग्नि में भस्म हो जाने के पश्चात् उसे मुक्ति प्राप्त हो जायेगी। माना की इस बात पर विश्वास कर चोर अग्नि में कूद गया। जब उसका शरीर जल कर भस्म हो गया, तब माना ने बाजार में जा कर उन आभूषणों को बेचने का प्रयास किया। वहाँ सन्देह पर उसे गिरफ्तार कर लिया गया और आभूषणों के स्वामी को वे आभूषण लौटा दिये गये। माना को मृत्यु-दण्ड दे दिया गया। माना के दुःखद अन्त को सुन कर गुरु ने कहा- “वस्तुतः एक विकृत-बुद्धि व्यक्ति अपने दोनों लोक गँवा बैठता है। यदि उसके हृदय से मूर्खता का निराकरण नहीं होता, तो गुरु का सामीप्य भी उसे मुक्ति प्रदान नहीं कर सकता।"
एक दिन गोविन्द नामक एक व्यक्ति ने अंगद के पास आ कर कहा, “आदरणीय गुरुदेव, मैंने प्रतिज्ञा की थी कि यदि मैं यह मुकदमा जीत लेता हूँ, तो आपके सम्मान में आपके नाम पर मैं एक नगर का निर्माण करूंगा। मैंने वह मुकदमा जीत लिया है और इसके साथ ही मैंने सम्राट् से नगर-निर्माण के लिए व्यास नदी के तट पर भूमि भी प्राप्त कर ली है। मैंने इसके निर्माण कार्य का प्रारम्भ भी कर दिया है। चिनाई का कार्य व्यवस्थित विधि से चल रहा है; किन्तु कुछ अनिष्टकर दुष्टात्माएँ दिन में बनी दीवालों को रात में गिरा देती हैं। कृपया इन दुष्टात्माओं को यहाँ से दूर कर इस निर्माणाधीन नगर को अपने नाम का गौरव प्रदान कीजिए।"
अंगद ने कहा—“सांसारिक समस्याओं से चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य के लिए 'सतनाम' से प्रियतर कोई पदार्थ नहीं है।" उन्होंने अपने शिष्य अमरदास को अपनी छड़ी दे दी। उन्होंने गुरु की छड़ी से उन दुष्टात्माओं को वहाँ से निष्कासित कर नगर की सीमा को रेखांकित कर दिया। अमरदास ने निर्माता के नाम पर इस नगर का नाम गोविन्दवाल रख दिया। आज भी यह नगर गोविन्दवाल के नाम से जाना जाता है।
खदूर का एक तपस्वी अंगद से ईर्ष्या करने लगा। उस साल अकाल पड़ा था। गाँव वालों ने तपस्वी के पास जा कर सहायता की याचना की। तपस्वी ने कहा कि यह अकाल उन लोगों को दण्ड देने के लिए पड़ा है। ईश्वर उन लोगों से इसलिए रुष्ट है कि वे उस-जैसे संन्यासी के स्थान पर अंगद-जैसे विवाहित गुरु का आदर-सत्कार करते हैं। उसने कहा- “यदि तुम लोग उसे नगर से निष्कासित कर दोगे, तो चौबीस घण्टों के भीतर ही यहाँ वर्षा होने लगेगी।” गाँव वाले तपस्वी के इस वचन से उत्तेजित हो उठे। उन लोगों ने अंगद के पास जा कर कहा – “या तो तुम यहाँ पानी बरसाओ या नगर का त्याग करो।” अंगद ने पानी बरसाना अस्वीकार कर दिया। इस पर गाँव वालों ने उन्हें खदूर से निष्कासित कर दिया। तपस्वी उनके निष्कासन से हर्ष-विह्वल हो उठा। अब गाँव वालों ने तपस्वी से पानी बरसाने को कहा। वह कुछ देर तक टाल-मटोल करता रहा। अन्ततः गाँव वालों का धैर्य जाता रहा और उन्होंने उसे मारा-पीटा। इसके पश्चात् उन्होंने उसे वहाँ से निष्कासित कर दिया। उसके इन निष्कासन में अमरदास का भी कुछ हाथ था । इसके पश्चात् गाँव वाले अंगद को खदूर लौटा ले आये। अंगद ने अमरदास की भर्त्सना करते हुए कहा- "तुमको अपने अन्तर्गत क्षमाशीलता विकसित कर और किसी के कृत्य पर ध्यान न दे कर उसका हित-साधन करना चाहिए। तुम्हें विनम्र होना चाहिए; क्योंकि विनम्र सदा उत्कर्ष को प्राप्त होता है। मोती छोटा होता है; किन्तु यह कितना बहुमूल्य होता है ! तुम पीपल के छोटे से फल को तो देखो। लघुतम आकार का होते हुए भी वह कितना वृहद हो जाता है और सम्पूर्ण वन को किस प्रकार आच्छादित कर लेता है !”
जिस प्रकार गुरु नानक ने अपने उत्तराधिकारी के चयन में अपने पुत्रों की अपेक्षा अपने शिष्य को वरीयता प्रदान की थी, उसी प्रकार अंगद ने अपने पुत्र के स्थान पर अमृतसर के निकटस्थ बसरका (Basarka ) के एक खत्री अमरदास को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। जब अंगद के जीवन का अन्त होने वाला था, तब उन्होंने अमरदास को स्नान करा कर उन्हें गद्दी पर बैठा दिया। उन्होंने अमरदास के सम्मुख तांबे के पाँच सिक्के तथा एक नारियल रखा और उनके एक अन्य शिष्य भाई बुद्धा ने अमरदास के ललाट पर गुरुत्व का तिलक लगा दिया।
अंगद ने गुरु नानक के विचारों पर चित्त स्थिर कर १५५२ ई. में इस नश्वर संसार का परित्याग कर दिया। मृत्यु के समय उनके होठों पर 'वाहे गुरु' शब्द थे। उनके शरीर का दाह संस्कार चन्दन की चिता पर हुआ।
FAQ
1. किसने गुरु अंगद (लाहिना) का जन्म कहाँ हुआ था?
गुरु अंगद का जन्म १५०४ ई. में पंजाब के फिरोजपुर जनपद में स्थित मुक्तसर के निकटस्थ सरायमत्ता (आजकल सरायनागा) में हुआ था।
2. गुरु अंगद के माता-पिता कौन थे?
गुरु अंगद के पिता का नाम फेरू था और वे खत्री जाति से थे।
3. गुरु अंगद की पत्नी का नाम क्या था?
गुरु अंगद की पत्नी का नाम खीवी था, जिनसे उनके तीन पुत्र और एक पुत्री थीं - अमरो, दासू, दातू और अमरो.
4. गुरु अंगद का धार्मिक अनुयायी थे और कैसे?
गुरु अंगद ज्वालामुखी की देवी दुर्गा के भक्त थे और वे देवी के मन्दिर में नियमित रूप से प्रतिवर्ष जाते थे।
5. गुरु नानक से गुरु अंगद की मुलाकात कैसे हुई?
गुरु अंगद ने गुरु नानक की पंक्तियों को एक सिख से सुनकर उनकी श्रद्धाभक्ति प्राप्त की और उनके दर्शन के बाद उनकी आत्मा गुरु नानक में प्रविष्ट हो गई।
6. गुरु अंगद का परिवर्तन कैसे हुआ और उनका नाम कैसे बदला?
गुरु अंगद के जीवन में गुरु नानक के शिष्य बनने के बाद, उनका नाम अड्डा खुद अर्थात् अंगद (मेरा अपना शरीर) हो गया।
7. गुरु अंगद ने किसे अपने उत्तराधिकारी बनाया और कैसे?
गुरु अंगद ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में अमरदास को नियुक्त किया और उन्हें गुरुत्व का तिलक दिलवाया।
8. गुरु अंगद का अंत कैसे हुआ?
गुरु अंगद का अंत १५५२ ई. में हुआ और उन्होंने अमरदास को गुरु बनाया। उनका जीवन अंतिम दिन में 'वाहे गुरु' शब्दों के साथ हुआ।
9. गुरु अंगद के उपदेश क्या थे?
गुरु अंगद ने गुरु नानक के विचारों का पालन करते हुए आत्मा के मार्ग की महत्वपूर्णता और सेवा के महत्व को बताया।
10. गुरु अंगद का धार्मिक और सामाजिक योगदान क्या रहा?
गुरु अंगद ने गुरु नानक के सिखों को उनके विचारों का पालन करने के लिए प्रेरित किया और सामाजिक सुधारों की दिशा में उनके आदर्शों को प्रमोट किया।
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