ईसा मसीह का जीवन परिचय
ईसामसीह (Jesus) एक फिलस्तीनी यहूदी थे। उनका जन्म बेतलहम (Bethlehem) में हुआ था और वे मरियम (Mary) तथा यूसुफ (Joseph) के पुत्र थे एक निष्पाप तथा निष्कलंक अवधारणा से प्रसूत ईसामसीह के जन्म-ग्रहण के लिए उनकी माता मरियम को गर्भ धारण नहीं करना पड़ा था। वे अत्यन्त विनम्र थे । वे आजीवन एक बालक की भाँति अबोध तथा निष्कपट बने रहे। वे सहिष्णु तथा दयालु थे । उन्होंने अपने उपदेशों से फिलस्तीन को उपकृत किया; किन्तु वस्तुतः वे पूर्व के योगी थे ।
ईसामसीह ने पापियों, तिरस्कृत व्यक्तियों तथा वेश्याओं तक का स्वागत किया और अपने प्रेम-पाश में आबद्ध कर उन्हें विशुद्ध कर दिया। उन्होंने उन्हें सान्त्वना तथा शान्ति प्रदान की, पतित जनों को ऊपर उठाया तथा जो लोग भग्न-हृदय थे, उनके दुःखों को उपशमित किया ।
ईसा मसीह किसके अवतार है:-
ईसा मसीह क्रिस्चियन धर्म के अनुसार ईश्वर के एक अवतार माने जाते हैं। उन्हें ईसाई धर्म के महान प्रवक्ता और उद्धारणा के रूप में माना जाता है, जिन्होंने अपने जीवन में धर्मिक संदेश और उपदेश दिया। वे बाइबल, ईसाई धर्म के प्रमुख ग्रंथों में उल्लिखित हैं। कृपया धर्मिक विश्वासों और धारणाओं के प्रति समर्पित और सववालापन से संवाद करें, और धार्मिक विश्वासों का सम्मान करें।
ईसामसीह कहते थे— “जब तक तुम एक बालक की भाँति अबोध तथा निश्छल नहीं हो जाते, तब तक ईश्वर के राज्य में तुम्हारा प्रवेश वर्जित रहेगा।" उनके अनुसार ईश्वर वात्सल्यपूर्ण पिता है। 'ईश्वर तथा पड़ोसी के प्रति प्रेम' ईसामसीह का आदर्श वाक्य था।
ईश्वर के प्रति आस्थावान् बनो। ईश्वर हमारा प्रभु है तुम अपने सम्पूर्ण हृदय, अपने सम्पूर्ण मन, अपनी सम्पूर्ण आत्मा तथा अपनी सम्पूर्ण शक्ति से ईश्वर से अनन्य प्रेम करो। तुम अपने समीपवर्ती व्यक्तियों से आत्मवत् प्रेम करो। ईश्वर के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मनुष्य के प्रति प्रेम में होती है ।" यह ईसामसीह की केन्द्रीय शिक्षा है।
ईसामसीह एक जगद्गुरु, पैगम्बर तथा मसीहा थे। उनका 'शैलोपदेश' (Sermon on the Mount) सदाचार या सम्यक् आचार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । यह राजयोग के यम-नियम एवं भगवान् बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग के अनुरूप है ।
ईसामसीह ने अन्तिम रात्रि-भोज (Last Supper) के समय अपने शिष्यों का चरण-प्रक्षालन किया। कितने विनम्र थे वे ! वे कहते हैं—“वे धन्य हैं जो विनम्र हैं; क्योंकि उन्हें पृथ्वी का उत्तराधिकार प्राप्त होगा । "
महाराजा युधिष्ठिर द्वारा अनुष्ठित राजसूय-यज्ञ में भगवान् कृष्ण ने भी अतिथियों का पद- प्रक्षालन किया था। ऐसे कर्म अवतारों या शक्तिमान् आत्माओं द्वारा ही निष्पादित हुआ करते हैं। क्या उन महान् व्यक्तियों से आपको शिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए? महाबली त्रिलोकाधिपति भगवान् कृष्ण को अतिथियों के चरण-प्रक्षालन से आनन्द प्राप्त हुआ था । क्या आपको विनम्र नहीं होना चाहिए? आप लोगों का हृदय दम्भ तथा अहंकार से किस सीमा तक दूषित हो गया है ! जब आपको किंचित् धन, एक कार या नगण्य भू-सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है, तब आप दर्प या अभिमान से मदोन्मत्त हो उठते हैं। इस स्थिति में आप स्वयं को एक शक्तिशाली सम्राट् समझने लगते हैं, आपके पद-प्रक्षेपण में औद्धत्य के दर्शन होने लगते हैं और लोगों के प्रति आपके व्यवहार में तिरस्कार तथा अवज्ञा का समावेश हो जाता है। आप अपने व्यक्तित्व तथा अपनी अवस्थिति को आवश्यकता से अधिक महत्त्वपूर्ण समझने लगते हैं। वस्तुतः आपके पदाधिकार ने आपके अन्दर दास-मनोवृत्ति की सृष्टि कर दी है और आप अपनी पदच्युति की आशंका के कारण सर्वदा भयग्रस्त रहते हैं ।
ईसामसीह यह सन्देश सर्वदा देते रहे- “अपने पड़ोसियों को आत्मवत् प्यार करो ।” उन्होंने कहा- “स्वर्ग का राज्य तुम्हारे अन्दर ही है। जिस प्रकार परमेश्वर की इच्छाओं की पूर्ति स्वर्ग में होती है, उसी प्रकार इनकी पूर्ति धरती पर भी हो । चिन्ता मत करो। सर्वप्रथम तुम उसके राज्य की खोज करो। इसके पश्चात् तुमको सब-कुछ प्राप्त हो जायेगा।” लोगों के अनुगमन के लिए वे सन्मार्ग, सत्य तथा प्रकाश थे ।
ईसामसीह ने ईश्वर के राज्य में प्रवेश के लिए ईश्वर तथा पड़ोसियों के प्रति प्रेम तथा पश्चात्ताप की आवश्यकता या हृदय परिवर्तन पर अधिक बल दिया। उन्होंने लोगों को भूखों को भोजन तथा वस्त्रहीनों को वस्त्र देने के लिए अनुदेशित किया। उन्होंने कहा कि ईश्वर की क्षमा-प्राप्ति के लिए पश्चात्तापपूर्ण हृदय आवश्यक है ।
“ईश्वर का राज्य तुम्हारे अन्दर है। उसकी खोज करो। वह तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा। उसके द्वार को खटखटाओ, तो वह तुम्हारे लिए खोला जायेगा।” इसी आधार-शिला पर ईसामसीह की आचार-संहिता अवस्थित है।
इस राज्य की सम्प्राप्ति के लिए ईसामसीह ने माध्यम के रूप में प्रार्थना की संस्तुति की । उन्होंने कहा—“जब तुम बुरे हो कर अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएँ देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने माँगने वालों को अच्छी वस्तुएँ क्यों नहीं देगा ?"
ईसामसीह ने कहा – “तुमने प्राचीन मनीषियों की यह बात सुनी है, 'तुम किसी की हत्या न करना और जो कोई भी हत्या करेगा, उसे दैवी न्याय का कोप भाजन होना पड़ेगा'; किन्तु मैं कहता हूँ कि जो कोई अपने भाई पर क्रोध करेगा, उसे दैवी न्याय का कोप-भाजन होना पड़ेगा। "
'शैलोपदेश' में उन्होंने कहा- “धन्य हैं वे जो धर्म के लिए क्षुधा तथा तृषा सहन करते है, क्योंकि वे तृप्त किये जायेंगे। जो लोग ईश्वर के राज्य की खोज अपने अन्तर में करते हैं, वे ईश्वर को प्राप्त कर लेंगे और इस प्रकार उन्हें अन्य सभी वस्तुएँ भी प्राप्त हो जायेंगी।"
“शुभ से अशुभ को पराजित करो।" ईसामसीह ने अपने शिष्यों तथा संसार के अन्य लोगों के समक्ष इस महान् व्रत या विधान को प्रस्तुत किया। यह एकमात्र अहिंसा की साधना है जिससे हृदय पवित्र तथा कोमल होता है। अहिंसा सत्य का रूपान्तरण मात्र है।
बपतिस्मा ग्रहण के पश्चात् ईसामसीह मृत सागर के पार के अरण्य की ओर चले गये । वे तेरह वर्ष की आयु में अन्तर्धान हुए थे और उनका पुनः आगमन उस समय हुआ जब उनकी आयु इकतीस वर्ष की हो चुकी थी। इस अवधि में उन्होंने भारत में योग-साधना की। इसके पश्चात् उन्होंने दो-तीन वर्षों तक उपदेश दिया और सर्वातीत परम सत्ता में विलीन हो गये।
ईसामसीह यरूसलेम (Jerusalem) के परित्याग के पश्चात् श्रेष्ठियों के एक सार्थ में सम्मिलित हो कर सिन्ध नदी के तट पर पहुँचे। उन्होंने वाराणसी, राजगृह तथा भारत के अन्य नगरों की यात्राएँ की। हिन्दुस्तान में उन्होंने अनेक वर्ष व्यतीत किये। ईसामसीह यहाँ एक हिन्दू या बौद्ध भिक्षु की भाँति रहे। इस अवधि में उनका जीवन ज्वलन्त त्याग तथा अनासक्ति से आप्लावित रहा। उन्होंने हिन्दू-धर्म के आदर्शों, अनुदेशों तथा सिद्धान्तों को एकीकृत किया। ईसाइयत मात्र संशोधित हिन्दुत्व है जो ईसामसीह के समकालीन जन-समुदाय के अनुकूल था। ईसामसीह वस्तुतः भारतभूमि की ही उपज थे। इसी कारण उनके उपदेशों और हिन्दू-धर्म तथा बौद्ध-धर्म के उपदेशों में इतना अधिक सादृश्य है।
ईसामसीह ने इस धरती पर दिव्य तथा पूर्ण प्रेम का उपदेश दिया। वे दानशीलता तथा उदारता के प्रशस्ति-गायन में सहस्रमुख हो जाते थे। वे कहा करते थे— “ग्रहण की अपेक्षा दान अधिक स्तुत्य एवं पुण्यप्रद है। अपने हृदय के सर्वोत्तम कोष को अर्पित कर दो । निर्मल प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करो। अपना प्रेम दे कर प्रत्युत्तर में किसी भी वस्तु की माँग मत करो। प्रति-उपकार की आशा मत करो। अपने सीमित भण्डार से तुम जितना अधिक व्यय करोगे, उतना ही अधिक तुम्हें प्रभु से प्राप्त होगा। वह तुम्हें दूनी राशि प्रदान करेगा।'
ईसामसीह कहते थे— “स्वर्ग का राज्य किसी खेत में छिपे हुए धन की भाँति है जिसे किसी व्यक्ति ने पा कर छिपा दिया है। उसने अपना सब कुछ बेच कर उस खेत को मोल ले लिया । "
ईसामसीह को सलीब पर टाँग कर उनके शरीर में कीलें ठोंक दी गयीं और इस प्रकार उनका देहान्त हो गया; किन्तु वे अभी भी जीवित हैं। उन्होंने अपने नाम को अमर कर दिया है। उनके स्वरों को प्रतिबन्धित नहीं किया जा सकता। वे शताब्दियों से मुखर होते आ रहे हैं। उनका कहना था—“अपना सर्वस्व बेच कर तथा उसे निर्धनों में वितरित कर के स्वर्ग के राज्य में प्रविष्ट हो जाओ।" लोग उनके सन्देश के अनुरूप आचरण में असमर्थ रहे; किन्तु उनके स्वरों से धरती आकाश आज भी गूंजित हैं।
ईसामसीह एक पूर्ण योगी थे। उन्होंने अनेक चमत्कारों का प्रदर्शन किया। उन्होंने समुद्र की तरंगों की गति अवरुद्ध कर दी। उन्होंने अन्धों को नेत्र दान दिया, कुष्ठग्रस्त रोगियों को स्पर्शमात्र से रोगमुक्त कर दिया और रोटी के एक टुकड़े मात्र से बड़ी भीड़ की क्षुधा को शान्त कर दिया।
भगवान् ईसामसीह को सलीब पर लटका दिया गया और उन्होंने मृत्यु को इसलिए आनन्दपूर्वक स्वीकार कर लिया कि अन्य लोग जीवित रह सकें। कितने महान् तथा उदारचेता थे वे ! अपने बच्चों के लिए उन्होंने मृत्यु का सहर्ष आलिंगन करना सीख लिया था। उनके अन्तिम शब्द विश्व के लिए एक दृष्टान्त बन गये हैं। उन्होंने - "हे प्रभो ! जो लोग मुझे यन्त्रणा दे कर मृत्यु-दण्ड दे रहे हैं, उन्हें क्षमा कर देना; कहा-' क्योंकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं।" कितने भव्य, कितने उदात्त थे उनके ये अन्तिम शब्द ! उनके हाथों को सलीब से बाँध दिया गया था और उनमें कीलें ठोंक दी गयी थीं। इस स्थिति में भी उन्होंने उन लोगों के लिए ईश्वर से प्रार्थना की जो उनको उत्पीड़ित कर रहे थे। उनका हृदय कितना विशाल तथा क्षमाशील था ! ईसामसीह क्षमाशीलता की प्रतिमूर्ति थे। यही कारण है कि वे आज भी हमारे हृदय में विद्यमान हैं और कोटि-कोटि लोग उनकी उपासना करते हैं।
शुभ से अशुभ की विजय के लिए उन्होंने लोगों के समक्ष एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया। ईसामसीह का सलीब उनके इस सिद्धान्त के सर्वोच्च दृष्टान्त के रूप में सर्वदा अमर रहेगा कि 'अशुभ के प्रत्युत्तर में शुभ दो ।' ईसामसीह ने स्वयं को ईश्वर को पूर्णतः समर्पित कर दिया था। वे इस सत्य से परिचित थे कि ईश्वर सदाचारी व्यक्तियों के दुःख-भोग के माध्यम से दुराचारी व्यक्तियों का हृदय-परिवर्तन कर देता है ।
सलीब पर हुई मृत्यु के पश्चात् वे पुनर्जीवित हो गये। ईसामसीह के अनुसार पुनरुत्थान या मृतक का पुनर्जीवित हो जाना वह अनिर्वचनीय स्थिति है जिसमें समस्त दैहिक सीमाओं का अतिक्रमण हो जाता है। यह ईश्वर के सम्मुख अनन्त काल तक उपस्थिति की दशा है । ईसामसीह एक सिद्ध योगी और सन्त थे । भौतिक शरीर से उनका तादात्म्य नहीं था। उन्होंने स्वयं को परमात्मा के साथ एकात्म कर लिया था। उनका कहना था – “मैं तथा मेरे पिता एक हैं। ”
क्रिसमस (ईसा-जयन्ती) की वास्तविक अर्थवत्ता
FAQ
ईसा मसीह ईसा मसीह किसके अवतार है?
ईसा मसीह ईसा मसीह हिन्दू धर्म के अनुसार ईश्वर का अवतार माने जाते हैं।
ईसा मसीह का जन्म कब हुआ?
ईसा मसीह का जन्म 1 ईसापूर्व के आस-पास हुआ था।
ईसा मसीह कौन थे?
ईसा मसीह किसी विशेष धर्म के अनुसार एक महान गुरु और धार्मिक नेतृत्वकर्ता थे।
ईसा मसीह को सूली पर कब चढ़ाया गया?
ईसा मसीह को सूली पर ईसापूर्व 30 के आस-पास चढ़ाया गया था।
ईसा मसीह की पत्नी?
ईसा मसीह की पत्नी के बारे में इतिहास में कोई निश्चित जानकारी नहीं है।
ईसा मसीह का जन्म कब हुआ और कहां हुआ?
ईसा मसीह का जन्म बैतलेहेम, जूदिया में हुआ था।
ईसा मसीह की मृत्यु कब और कैसे हुई?
ईसा मसीह की मृत्यु करूस परिवार्णन अनुसार ईसापूर्व 30 के आस-पास हुई थी।
ईसा मसीह को क्यों मारा गया?
ईसा मसीह को उनके धार्मिक विचारों के कारण मारा गया था।
ईसा मसीह का जन्म कितने साल पहले हुआ था?
ईसा मसीह का जन्म लगभग 2000 वर्ष पहले हुआ था।
ईसा मसीह को सूली पर क्यों चढ़ाया गया?
ईसा मसीह को सूली पर उनके धार्मिक विचारों के कारण चढ़ाया गया था।
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