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महात्मा बुद्ध | जीवनी घटनाएँ सिद्धान्त और उपदेश | PDF

          ईसापूर्व छठी शताब्दी में भारत में धर्म विस्मृति के गर्भ में विलीन हो चुका था । वेदों के उदात्त आदेशोपदेश पृष्ठभूमि में डाल दिये गये थे । सर्वत्र पुरोहित-तन्त्र का वर्चस्व था । कुटिल-कपटी पुरोहितों ने धर्म को व्यवसाय बना लिया था। लोगों को विभिन्न विधियों से प्रवंचित कर उन्होंने अपने लिए अकूत धन-राशि संचित कर ली थी। वे नितान्त अधार्मिक थे और धर्म के नाम पर इन हृदयहीन पुरोहितों का पदानुसरण करता हुआ जन-समुदाय अर्थहीन कर्मकाण्डों के अनुष्ठान में संलग्न था । लोग निर्दोष तथा मूक पशुओं की हत्या कर भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञानुष्ठान किया करते थे। देश को बुद्ध की कोटि के किसी सुधारक की आवश्यकता की तीव्रतर अनुभूति हो रही थी ।

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जन्म

महात्मा बुद्ध का जन्म कब हुआ :-

      शाक्याधिपति शुद्धोधन बुद्ध के पिता थे और उनकी माता का नाम माया था। बुद्ध का जन्म ५६० ई० पू० तथा उनकी मृत्यु ४८० ई० पू० में हुई थी । मृत्यु के समय उनकी आयु अस्सी वर्ष थी। उनका जन्म नेपाल के हिमालय क्षेत्र के अन्तर्गत पाल्यापर्वत की उपत्यका में स्थित कपिलवस्तु नगरी के निकटस्थ लुम्बिनी नामक वन में हुआ था । कपिलवस्तु नामक यह नगरी वाराणसी से लगभग सौ मील दूर रोहिणी नामक एक छोटी नदी के तट पर स्थित है। जब बुद्ध के इस धरा धाम पर अवतीर्ण होने का समय आया, तब स्वयं देवताओं ने उनके मार्ग में दिव्य तथा मांगलिक प्रतीकों एवं शकुनात्मक लक्षणों की संरचना कर दी। ऋतु के स्वभाव के प्रतिकूल उपवन पुष्पित हो चले और वर्षा की सुखद-मन्द फुहारें पड़ने लगीं। वातावरण में स्वर्गिक संगीत गूँज उठा तथा सुरभित वायु बहने लगी। नवजात शिशु के शरीर पर बत्तीस मांगलिक चिह्न (महाव्यंजन) थे जो उसकी भावी महानता के द्योतक थे। इनके अतिरिक्त उसके शरीर पर अनेक आनुषंगिक चिह्न (अणुव्यंजन) भी थे। पुत्र-जन्म के सात दिनों के पश्चात् ही माया का देहान्त हो गया। शिशु का पालन-पोषण उसकी बहन महाप्रजापति द्वारा हुआ जिसने उसकी प्रतिपालिका माता का उत्तरदायित्व वहन किया ।


ज्योतिषियों की भविष्यवाणी

    शिशु सिद्धार्थ के जन्म के अवसर पर ज्योतिषियों ने उसके पिता के समक्ष यह भविष्यवाणी की : “युवावस्था को प्राप्त होने पर यह बालक या तो एक चक्रवती सम्राट् होगा या गृह-त्याग के पश्चात् साधु-वेष धारण कर मानव-जाति की मुक्ति के लिए ज्योतिष्मती प्रज्ञा से सम्पन्न बुद्ध हो जायेगा।” तब राजा ने पूछा : “मेरा पुत्र किन वस्तुओं को देख कर संसार से विरक्त होगा ?" ज्योतिषियों ने उत्तर दिया : “चार लक्षणों को देख कर ।” राजा ने पूछा : “ये चार लक्षण क्या हैं ?” ज्योतिषियों ने कहा : “एक जर्जरकाय वृद्ध, एक रोगी, एक शव तथा एक साधु को देख कर राजकुमार संसार के प्रति विरक्त हो जायेगा ।”


शुद्धोधन की सतर्कता

    यह सोच कर कि कहीं वह अपने बहुमूल्य पुत्र से वंचित न हो जाये, शुद्धोधन उसे सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्त करने के अथक प्रयास में संलग्न हो गये। ऐन्द्रिय सुखोपभोग के प्रति उसकी आसक्ति तथा एकान्त एवं निर्धनता के व्रत ग्रहण के प्रति उसकी विरक्ति के लिए उन्होंने उसके चतुर्दिक् विलास तथा सम्मोहन के समस्त उपकरणों की व्यवस्था कर दी। उन्होंने उसका विवाह कर उसे एक ऐसे स्थान पर रख दिया जो उन प्राचीरों से आवेष्ठित था जिनके अन्तर्गत उद्यान, राजप्रासाद, संगीत तथा नृत्य आदि सभी कुछ उपलब्ध थे। उसको प्रमुदित तथा प्रफुल्ल रखने के लिए अगणित सौन्दर्यमयी युवतियाँ उसकी सेवा में संलग्न रहती थीं। शुद्धोधन विशेष रूप से उसको उन चार लक्षणों से विलग रखना चाहते थे जिनके कारण उन्हें उसके तपस्वी हो जाने का भय था। राजा ने कहा- “इसी क्षण से इन लक्षणों से युक्त किसी भी व्यक्ति को उसके निकट मत आने दो। इस प्रकार वह बुद्ध नहीं हो पायेगा। मेरी कामना है कि मेरा पुत्र चारों महाद्वीपों तथा दो सहस्र सहवर्ती द्वीपों पर अपनी प्रभुसत्ता तथा अपने अधिकार का उपभोग करे और छत्तीस योजन की विस्तृत परिधि वाले स्वर्ग लोकों में उसका अबाध विचरण होता रहे।" इतना कह कर उन्होंने चारों दिशाओं में एक-एक योजन पर चार-चार प्रहरी नियुक्त कर दिये जिससे उक्त चार प्रकार के व्यक्तियों पर उनके पुत्र की दृष्टि न पड़ सके।


प्रव्रज्या (सन्न्यास)

    बुद्ध का प्रारम्भिक नाम सिद्धार्थ था । इस शब्द का अभिप्राय उस व्यक्ति से है जिसकी लक्ष्य-पूर्ति हो चुकी हो । सिद्धार्थ का पारिवारिक नाम गौतम था । उनको संसार में बुद्ध के नाम से जाना जाता है। लोग उनको शाक्यमुनि भी कहते थे जिसका अर्थ है शाक्यवंशीय मुनि ।

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    सिद्धार्थ की बाल्यावस्था कपिलवस्तु के परिसर में व्यतीत हुई। सोलह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ। उनकी पत्नी का नाम यशोधरा था और उनके राहुल नामक एक पुत्र था। उनतीस वर्ष की आयु में आध्यात्मिक खोज तथा योग-साधना के प्रति स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर देने के लिए उन्होंने एक दिन अकस्मात् ही गृह त्याग कर दिया। एक घटना मात्र से उत्प्रेरित हो कर वे प्रव्रज्या के मार्ग की ओर उन्मुख हो गये । एक दिन उन्हें किसी प्रकार अपने प्राचीर-परिवेष्ठित निवास स्थान से बहिर्गमन का अवसर प्राप्त हो गया और वे अपने भृत्य चन्ना के साथ लोगों के जीवन-यापन की विधि से परिचित होने के लिए नगर में इतस्ततः घूमने लगे । वहाँ एक जर्जरकाय वृद्ध, एक रोग ग्रस्त व्यक्ति, एक शव तथा एक साधु को देख कर अन्ततः उन्होंने संसार-त्याग का निश्चय कर लिया। उनको इस तथ्य का अनुभव होने लगा कि एक दिन उनको भी जरा, रोग तथा मृत्यु से ग्रस्त होना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त उस साधु के सौम्य तथा गत्यात्मक व्यक्तित्व ने भी उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने मन-ही-मन सोचा - 'मुझे इस दुःखमय संसार का परित्याग कर साधु- वृत्ति ग्रहण कर लेनी चाहिए। सुखोपभोग तथा विलास से ओत-प्रोत यह ऐहिक जीवन नितान्त अर्थहीन है। मेरा क्षय भी अनिवार्य है और मैं भी वृद्धावस्था के परिणाम से मुक्त नहीं हूँ । सांसारिक सुख क्षणिक हैं।

    गौतम ने गृह, धन, राज्य, सत्ता, माता, पत्नी तथा अपने एकमात्र पुत्र का सर्वदा के लिए परित्याग कर दिया। मुण्डित- शीश हो कर उन्होंने पीत वस्त्र धारण कर लिया । - तत्पश्चात् उन्होंने मगध साम्राज्य की राजधानी राजगृह की ओर प्रस्थान किया । वहाँ आस-पास की पहाड़ियों में अनेक गुफाएँ थीं जिनमें अनेक वैखानस रहा करते थे । सिद्धार्थ ने अपने प्रथम आचार्य के रूप में अलाम कलाम नामक वैखानस का चयन किया; किन्तु वे उनके उपदेशों से सन्तुष्ट नहीं हो सके। उनका परित्याग कर उन्होंने उद्दक रामपुत्त नामक एक अन्य यति से आध्यात्मिक उपदेश की याचना की । अन्ततः उन्होंने योग-साधना का संकल्प किया। वे उरुविला के वन में चले गये जिसे आजकल बोधगया कहते हैं। वहाँ उन्होंने छह वर्षों तक कठोर तप तथा प्राणायाम की साधना की। उन्होंने आत्म-निग्रह के माध्यम से सर्वोच्च शान्ति की सम्प्राप्ति का निश्चय किया। वे लगभग पूर्णतः निराहार रहने लगे; किन्तु इस विधि से भी उनको किसी प्रकार की प्रगति का अनुभव नहीं हो सका। वे कंकाल मात्र एवं क्षीण-शक्ति हो कर रह गये ।

    उसी समय कुछ नर्तकियाँ उस मार्ग से वीणा की धुन पर सोल्लास गाती हुई जा रही थीं। बुद्ध को उनके गीतों से वास्तविक आश्वासन प्राप्त हुआ। उन नर्तकियों के लिए उनके गीतों में कोई गहन अर्थवत्ता नहीं निहित थी; किन्तु बुद्ध के लिए यह एक गूढ आध्यात्मिक सन्देश था जिसने उन्हें उनके नैराश्य से मुक्त कर उनको शक्ति तथा साहस से अनुप्राणित कर दिया।

इस गीत का अर्थ था :

    “सितार के सुर-ताल का अनुगमन करने वाला नृत्य सुखद होता है। हम सितार के तारों को न अधिक ऊर्ध्वस्तरीय करें, न अधिक निम्नस्तरीय । इसी स्थिति में हम दर्शकों के हृदय को तृप्त कर सकेंगी। अधिक कसा तार खण्डित हो कर संगीत को निष्प्राण कर देता है। अधिक ढीला तार भी मूक हो कर मृतप्राय हो जाता है। हम अपने सितार को न अधिक मन्द स्वर प्रदान करें, न अधिक तीव्र ।”


सम्बोधि

    एक बार बुद्ध योग-साधना में विफल रहने के कारण विषण्ण मनःस्थिति में थे । वे पूर्णतः किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुके थे। एक ग्रामीण बाला उनके अवसादग्रस्त मुख-मण्डल को देख कर उनके समीप गयी और बोली- “श्रद्धेय महोदय, क्या मैं आपके लिए कुछ भोजन का प्रबन्ध करूँ ? ऐसा प्रतीत होता है कि आप बहुत अधिक भूखे हैं।” गौतम नें उसे देख कर कहा – “मेरी प्रिय बहन, तुम्हारा नाम क्या है ?” बाला ने उत्तर दिया—“आदरणीय महोदय, मेरा नाम सुजाता है।” गौतम ने कहा—“सुजाता, मैं बहुत भूखा हूँ। क्या तुम वास्तव में मेरी क्षुधा को शान्त कर सकती हो ?”

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    अबोध सुजाता गौतम के मन्तव्य को नहीं समझ सकी। उनकी क्षुधा आध्यात्मिक थी । उनके अन्तर में सर्वोच्च शान्ति तथा आत्मसाक्षात्कार की पिपासा जाग्रत थी। वे आध्यात्मिक आहार की खोज में थे। सुजाता ने उनके समक्ष भोजन रख कर उनसे उसे ग्रहण करने का आग्रह किया । गौतम ने मुस्कराते हुए कहा – “प्रिय सुजाता, मैं तुम्हारे दयालु तथा सद्भावपूर्ण स्वभाव से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। क्या इस भोजन से मेरी क्षुधा शान्त हो सकेगी ?” सुजाता ने उत्तर दिया- “हाँ महोदय, इससे आपकी क्षुधा शान्त हो जायेगी । कृपया, अब आप इसे ग्रहण कीजिए।" गौतम एक विशाल वट-वृक्ष के नीचे भोजन करने लगे। तबसे लोग उस वृक्ष को 'बोधि-वृक्ष' कहने लगे। गौतम ब्राह्ममुहूर्त से सान्ध्य प्रहर तक उग्र निश्चय तथा दृढ़ संकल्प के साथ ध्यान - मुद्रा में बैठे रहे । “भले ही मैं मृत्यु को प्राप्त हो जाऊँ, भले ही मेरा शरीर नष्ट हो जाये और भले ही मेरा शरीर शुष्क-चर्म हो जाये, जब तक मुझे सम्बोधि की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक मैं इस आसन का परित्याग नहीं करूँगा।” रात्रि में वे उस वृक्ष के नीचे समाधि में प्रविष्ट हो गये । माया अर्थात् मार ने उन्हें कई प्रकार के प्रलोभन दिये; किन्तु उनसे वे अप्रभावित रहे । उनके समक्ष वे अजेय बने रहे। उन्हें दीप्तिमयी विजयश्री प्राप्त हुई । उन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया। उनका मुख-मण्डल दिव्य ज्योति से दीप्तिमान् हो उठा और वे आसन से उठ कर उस बोधि-वृक्ष के नीचे आनन्द के उन्मेष में निरन्तर सात दिनों तक नृत्य करते रहे। इसके पश्चात् ही उनकी चेतना सामान्य हो सकी। उनका हृदय दया और करुणा से आप्लावित हो उठा। उन्होंने अपनी उपलब्धियों में सबको भागीदार बनाना चाहा । उन्होंने सम्पूर्ण देश की यात्रा की और स्थान-स्थान पर लोगों को अपने सिद्धान्तों तथा अपनी धार्मिक मान्यताओं का उपदेश दिया। वे एक परित्राता, मुक्तिदाता तथा उद्धारक हो गये ।

     बुद्ध अपने समाधिजन्य अनुभवों का विवरण इन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं— “इस प्रकार मैं देखता हूँ कि मेरा मन जागतिक सत्ता, ऐन्द्रिय सुखों, अपसिद्धान्तों तथा अज्ञान के कालुष्य से मुक्त हो गया है।”

    मुक्तावस्था में उन्हें यह ज्ञान हुआ“मैं मुक्त हूँ, पुनर्जन्म के दीप का निर्वाण हो चुका है, धार्मिक परिभ्रमण की परिसमाप्ति हो गयी है, जो कुछ करणीय था उसे किया जा चुका है और अब यह वर्तमान अस्तित्व अनावश्यक हो गया है। मैंने सभी शत्रुओं को विजित कर लिया है; मैं सर्वज्ञ हूँ, मैं पूर्णतः निष्कलंक हूँ; मैं प्रत्येक वस्तु का परित्याग कर चुका हूँ और तृष्णा के निरसन के माध्यम से मुझे निर्वाण प्राप्त हो चुका है । जब मैं स्वयं ज्ञानी हूँ तब अपना आचार्य किसे कहूँ? मेरा आचार्य कोई नहीं है । मेरे समकक्ष कोई नहीं है । इस संसार में मैं पूतात्मा तथा सर्वश्रेष्ठ आचार्य हूँ । एकमात्र मैं ही बुद्ध हूँ । वासनाओं के परिशमन के फल-स्वरूप मुझे शान्ति तथा निर्वाण की सम्प्राप्ति हो चुकी है। धर्म के साम्राज्य की स्थापना के लिए मैं वाराणसी जा रहा हूँ । इस संसार के अन्धकार में मैं अमरत्व की दुन्दुभि बजाऊँगा ।”

    इसके पश्चात् भगवान् बुद्ध वाराणसी चले गये। एक दिन सन्ध्या-काल में वे मृगदाव में प्रविष्ट हुए । उन्होंने वहाँ प्रवचन किया और अपने सिद्धान्तों की शिक्षा दी । उन्होंने स्त्री-पुरुष, उच्च-निम्न, अज्ञ - विज्ञ - इन सभी को बिना किसी भेद-भाव के अपने उपदेशामृत से उपकृत किया। उनके प्रथम शिष्यों में सभी सामान्य वर्ग के थे जिनमें दो स्त्रियाँ भी थीं। अपने पूर्व-धर्म का परित्याग कर उनके धर्म में दीक्षित होने वाला प्रथम व्यक्ति यश नामक समृद्ध युवक था । उसके अतिरिक्त उसके माता-पिता तथा उसकी पत्नी ने भी उनसे दीक्षा ग्रहण की। ये सभी उनके सामान्य शिष्य थे ।

    बुद्ध ने अपने उन पूर्व-शिष्यों से शास्त्रार्थ किया और उनके समक्ष अपने तर्क प्रस्तुत किये जिन्होंने उरुविला के वन में उसका परित्याग कर दिया था। उन्होंने अपनी प्रभावोत्पादक युक्तियों एवं अन्वेषी बुद्धि से उन्हें अपने निकटस्थ कर लिया। उन्होंने सर्वप्रथम कोन्दान्नो (Kondanno) नामक एक वृद्ध यति को दीक्षित किया। अन्य लोगों ने भी भगवान् बुद्ध के सिद्धान्तों को स्वीकार किया। बुद्ध ने इस प्रकार साठ शिष्यों को दीक्षित-प्रशिक्षित कर अपने सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करने के लिए विभिन्न दिशाओं में भेज दिया ।


सिद्धान्त का सार

    बुद्ध के अनुयायियों की संख्या में क्रमशः वृद्धि होती गयी। सामन्त, ब्राह्मण और अनेक समृद्ध व्यक्ति उनके शिष्य हो गये। बुद्ध ने जाति-पाँति की ओर कोई ध्यान नहीं दिया । निर्धन तथा जाति-बहिष्कृत व्यक्ति भी उनके संघ में सम्मिलित कर लिये गये। जो लोग उनके संघ के पूर्ण सदस्य बनना चाहते थे, उन्हें भिक्षु बनना और कठोर आचारशास्त्रीय नियमों का पालन करना पड़ता था । सामान्य जन भी उनके शिष्य थे जिन्हें भिक्षुओं की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ती थी ।

            उरुविला के वन में तीन भाई रहते थे जो प्रख्यात सन्त तथा दार्शनिक थे। उनके अनेक शिष्य थे जो अत्यन्त विद्वान् थे । राजा-महाराजा उनका आदर करते थे। बुद्ध उरुविला जा कर इन तीनों सन्तों के समीप रहे। उन्होंने इन तीनों सन्तों को अपने मत में दीक्षित कर लिया। इस घटना से समस्त देश चमत्कृत रह गया ।

    भगवान् बुद्ध अपने शिष्यों के साथ मगध की राजधानी राजगृह गये। वहाँ सम्राट् विम्बसार एक लाख बीस हजार ब्राह्मणों तथा गृहस्थों के साथ बुद्ध तथा उनके अनुयायियों से श्रद्धापूर्वक मिले। उन्होंने भगवान् बुद्ध का प्रवचन सुना और वे तत्क्षण उनके शिष्य हो गये । ब्राह्मणों तथा गृहस्थों में एक लाख दश हजार भगवान् बुद्ध के संघ के पूर्णकालिक सदस्य बन गये। शेष दश हजार सामान्य अनुयायी बने । बुद्ध के अनुयायी जब दैनिक भिक्षाटन के लिए जाते थे, तब उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। विम्बसार ने अपना वेणुवन बुद्ध को उपहार स्वरूप दे दिया। यह वेणुवन राजधानी के निकटस्थ राजकीय क्रीड़ा-उद्यान था । भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों के साथ वहाँ वर्षा की अनेक ऋतुएँ व्यतीत की थीं।

     प्रत्येक बौद्ध भिक्षु को पीत वस्त्र धारण करते समय हिंसा से विरत रहने का व्रत-ग्रहण करना पड़ता था । अतः उसके लिए वर्षा ऋतु में किसी एक ही स्थान पर रहना आवश्यक हो जाता था। आज भी शांकर सम्प्रदाय के परमहंस संन्यासी वर्षा ऋतु में किसी एक ही स्थान पर चातुर्मास व्यतीत करते हैं। इन दिनों सूर्य की उष्णता तथा ऋतु की आर्द्रता के संयुक्त योग-दान के कारण असंख्य कृमि-कीट उत्पन्न हो जाते हैं जिनकी हत्या किये बिना परिभ्रमण असम्भव हो जाता है।

    भगवान् बुद्ध को अपने पिता का एक सन्देश प्राप्त हुआ जिसमें उनसे अपने जन्म-स्थान में आगमन का अनुरोध किया गया था जिससे उनके पिता अपनी मृत्यु के पूर्व उन्हें एक बार देख लें । बुद्ध उनके अनुरोध को सहर्ष स्वीकार कर कपिलवस्तु की ओर चल पड़े और नगर के बाहर वन में रुके। उनके पिता तथा सम्बन्धी उनको देखने आये; किन्तु वे भिक्षु गौतम को देख कर प्रसन्न नहीं हुए और कुछ ही क्षणों के पश्चात् वहाँ से लौट गये। उन्होंने उनकी तथा उनके अनुयायियों की भिक्षा की भी कोई व्यवस्था नहीं की। वे लोग सांसारिक प्राणी थे। बुद्ध ने नगर में द्वार-द्वार पर भिक्षाटन किया। यह समाचार उनके पिता तक पहुँचा। उन्होंने गौतम को भिक्षाटन से विरत करने का प्रयास किया; किन्तु गौतम ने कहा- “महाराज, मैं भिक्षु हूँ। द्वार-द्वार पर जा कर भिक्षा ग्रहण करना मेरा कर्तव्य है। संघ के लिए यही करणीय है। इसमें आप बाधक क्यों बनते हैं? भिक्षान्न अत्यन्त पवित्र होता है।" उनके पिता ने गौतम की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। उनके हाथों से भिक्षा पात्र छीन कर वे उन्हें राजप्रासाद में ले गये । वहाँ उनके प्रति सभी ने अपनी श्रद्धा व्यक्त की, किन्तु उनकी पत्नी यशोधरा वहाँ नहीं गयी। उसने कहा- “यदि उनके लिए मेरा कुछ भी महत्त्व है, तो वे स्वयं मेरे पास आयेंगे।” वह विवेक, वैराग्य एवं अन्य सद्गुणों से सम्पन्न एक पतिव्रता नारी थी। जिस दिन वह पति-परित्यक्ता हुई थी, उसी दिन से उसने प्रसाधन तथा विलास के सभी साधनों का परित्याग कर दिया था। वह दिन में केवल एक बार ही सामान्य अन्न ग्रहण करती और चटाई पर सोती थी। वह एक कठोर तपोमय जीवन व्यतीत कर रही थी। गौतम यह सब सुन कर विचलित हो उठे । वे तत्काल उसे देखने चल पड़े। उसने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। वह उनके चरणों पर गिर कर रोने लगी । बुद्ध ने भिक्षुणियों के संघ की भी स्थापना की थी जिसकी प्रथम भिक्षुणी यशोधरा बनी ।

    यशोधरा ने वहाँ से जाते हुए बुद्ध की ओर वातायन से संकेत करके अपने पुत्र से कहा—“ओ राहुल, वह भिक्षु तुम्हारे पिता हैं। तुम उनके पास जा कर अपने जन्म-सिद्ध अधिकार की माँग करो। तुम उनसे निर्भीकतापूर्वक कहो कि तुम उनके पुत्र हो और वे तुम्हें तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति प्रदान करें।” राहुल ने तत्क्षण उनके निकट जा कर कहा—“पिता जी, मुझे मेरी पैतृक सम्पत्ति दीजिए।" बुद्ध उस समय भोजन कर रहे थे। उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। पुत्र पिता से बार-बार पैतृक सम्पत्ति की माँग करता रहा। बुद्ध ने अपने एक शिष्य से कहा- “बोधि-वृक्ष के नीचे मुझे जिस अमूल्य सम्पत्ति की प्राप्ति हुई थी, मैं इस बालक को उसका उत्तराधिकारी नियुक्त करता हूँ।" राहुल को भिक्षुओं के संघ में सम्मिलित कर लिया गया। जब बुद्ध के पिता को इसकी सूचना प्राप्त हुई, तब उन्हें घोर दुःख हुआ; क्योंकि पुत्र से वंचित होने के पश्चात् अब वे अपने पौत्र से भी वंचित हो गये थे ।

    बुद्ध के जीवन के साथ कुछ चमत्कार भी जुड़े थे। एक बार मायिक शक्ति से सम्पन्न एक हिंस्र सर्प बुद्ध के ऊपर अग्नि-वर्षा करने लगा। बुद्ध भी स्वयं को अग्नि-रूप में परिवर्तित कर उस सर्प पर अग्नि-वर्षा करने लगे। बुद्ध एक बार एक सरोवर से बाहर निकलना चाहते थे। उस अवसर पर एक वृक्ष ने अपनी एक शाखा को झुका कर उनकी सहायता की। एक बार उनके आदेश पर ईंधन के लिए प्रयुक्त पाँच सौ लकड़ियाँ स्वयं विखण्डित हो गयीं। उन्होंने पाँच सौ ऐसे पात्रों की संरचना कर दी जिनमें आग जल रही थी। ऐसा उन्होंने शीत से कम्पित जटिलों के लिए किया था। एक बार नदी में जब बाढ़ आयी थी, तब वे नदी के जल को निम्न स्तर पर ला कर उसे पार कर गये थे।

    आनन्द जो बुद्ध के चचेरे भाई थे, उनके प्रारम्भिक शिष्यों में प्रमुख थे । वे बुद्ध के सर्वाधिक निष्ठावान् मित्र तथा शिष्य थे । बुद्ध के प्रति उनकी निष्ठा एक बाल-सुलभ विशिष्ट उत्साह से आप्लावित थी । वे उनके वैयक्तिक अनुवर्ती के रूप में मृत्युपर्यन्त उनकी सेवा में संलग्न रहे। वे एक लोकप्रिय व्यक्ति थे और उनका स्वभाव अत्यन्त मधुर था। बौद्धिक दृष्टि से उनकी सम्प्राप्ति नगण्य-सी थी; किन्तु उनका निष्कपट स्वभाव स्नेह से ओत-प्रोत था । देवदत्त आनन्द का भाई था। वह भी संघ का सदस्य था । वह बुद्ध का सर्वाधिक विरोधी था और उसने उन्हें अपदस्थ कर उनके उच्चासन को स्वयं ग्रहण करने के लिए अथक प्रयास किये थे। उपालि नामक एक नाई तथा अनिरुद्ध नामक एक ग्रामीण भी संघ के सदस्य थे। उपालि संघ का एक प्रख्यात तथा अग्रणी भिक्षु हो गया और अनिरुद्ध एक ऐसे दार्शनिक के रूप में प्रख्यात हुआ जिसका पाण्डित्य अगाध था ।


अन्त

    बुद्ध कोशल की राजधानी श्रावस्ती गये जहाँ एक समृद्ध श्रेष्ठी ने उनके आवास के लिए एक सुविस्तृत तथा मनोरम उपवन की व्यवस्था कर दी। बुद्ध ने अपनी अनेक वर्षा ऋतुएँ वहीं व्यतीत की और वहाँ कई महत्त्वपूर्ण प्रवचन किये। इस प्रकार बुद्ध पैंतालीस से भी अधिक वर्षों तक परिभ्रमण करते हुए अपने सिद्धान्तों का उपदेश देते रहे ।

     भोजन में कुछ दोष से उत्पन्न एक रोग के कारण बुद्ध की मृत्यु हो गयी । वे कुन्दो (Cundo) नामक एक निष्ठावान् महिला द्वारा प्रदत्त शूकरमद्व के भक्षण से अस्वस्थ हो गये । भाष्यकार इस शब्द का निर्वचन शूकर के मांस के रूप में करते हैं; किन्तु सुभद्र इसे वह खाद्य पदार्थ समझते हैं जो शूकर के लिए रुचिकर होता है। वे इसे कवक (Truffle) की कोटि का कोई पदार्थ मानते हैं। डा० होय के अनुसार यह शूकर-मांस न हो कर शकरकन्द है जो अधिकतर वन में पाया जाता है और जो अत्यधिक सुस्वादु तथा रुचिकर होता है | हिन्दू इसे फलाहार मानते हैं । इसे व्रत के दिन ग्रहण किया जाता है।

    बुद्ध ने आनन्द से कहा- “ आनन्द ! जाओ और मेरे लिए शाल के दो वृक्षों के बीच एक ऐसी शय्या की व्यवस्था करो जिस पर मेरा शिरोभाग उत्तर की ओर रहे। मैं श्रान्त-क्लान्त हूँ और अब मैं सोना चाहूँगा।" इसके पश्चात् एक आश्चर्यजनक दृश्य उपस्थित हो गया। दोनों शालवृक्ष पूर्णतः कुसुमित हो उठे जब कि ऋतु इसके अनुकूल नहीं थी । सुमन-राशि बुद्ध के शरीर पर झरने लगी। यह उनके प्रति उनकी श्रद्धा का प्रतीक था । बुद्ध के शरीर पर दिव्य पारिजात वृक्ष के सुमनों तथा चन्दन-चूर्ण का वर्षण होने लगा । यह उनके प्रति उनके सम्मान का प्रतीक था ।

    भगवान् बुद्ध ने कहा—“प्रिय भिक्षुओ, मेरे समीप आओ। जो संयोजित है, उसका विघटन अनिवार्य है। परिश्रम के माध्यम से तुम लोग समृद्धि को प्राप्त करो और अपने निर्वाण के लिए प्रयत्नशील रहो !”


कुछ घटनाएँ

गौतम में बाल्यावस्था से ही अहिंसा की प्रवृत्ति विद्यमान थी। एक दिन उनके भाई देवदत्त ने एक पक्षी को शर-विद्ध कर दिया और आहत पक्षी धरती पर आ गिरा। गौतम ने दौड़ कर उसे उठा लिया और उसे अपने चचेरे भाई देवदत्त को देना अस्वीकार कर दिया । इस विवाद को राजगुरु के समक्ष प्रस्तुत किया गया जिन्होंने अन्ततः अपना निर्णय गौतम के पक्ष में दिया । देवदत्त इस निर्णय से अत्यधिक अपमानित हुआ ।

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    अपने परिभ्रमण के समय एक दिन गौतम ने भेड़-बकरियों के एक यूथ को एक संकीर्ण उपत्यका से हो कर जाते हुए देखा। यूथ के पशुओं को पथ-भ्रान्त न होने देने के लिए चरवाहा प्रायः उनके आगे-पीछे चिल्लाते हुए दौड़ा करता था। पशुओं के उस बृहद् समूह में एक आहत मेमना भी था जो सबसे पीछे सायास मन्द गति से चला जा रहा था। चरवाहे के दण्ड-प्रहार से वह पंगु हो गया था। उसे देख कर गौतम का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने उसे बाँहों में भर लिया और उसे ले चलते हुए कहा—“ओलिम्पस की किसी शिला या किसी एकान्त गुहा में बैठ कर मानवता के क्लेश पर चिन्तन करने से किसी निरीह प्राणी का कष्ट निवारण श्रेयस्कर है।" इसके पश्चात् उन्होंने चरवाहे से पूछा "मित्र, तुम पशुओं के इस यूथ को लिये हुए इतनी शीघ्रता के साथ कहाँ जा रहे हो ?" चरवाहे ने कहा- "मैं राजप्रासाद जा रहा हूँ। आज की रात महाराजा देवताओं के अनुग्रह की प्राप्ति के लिए एक यज्ञानुष्ठान का प्रारम्भ करने वाले हैं। मुझे उस यज्ञ में बलि के लिए भेड़-बकरियाँ लाने के लिए भेजा गया है।" यह सुन कर उस मेमने को लिये हुए गौतम ने चरवाहे का अनुगमन किया। जब वे नगर में पहुंचे, तब सर्वसाधारण इस बात से अवगत हो गया कि एक यति राजा के आदेशानुसार यज्ञ के लिए बलि-पशु ला रहा है। उन्हें देखने के लिए लोग पथ पर एकत्र हो गये । उन्होंने पीत वस्त्र धारण किया था तथा उनकी आकृति भव्य तथा सौम्य थी। उनकी अभिजातीय देह-यष्टि तथा सम्मोहक मुख-मुद्रा से सभी आश्चर्य चकित रह गये। यज्ञ में उस पूतात्मा के आगमन की सूचना राजा को दे दी गयी जब  यज्ञानुष्ठान का प्रारम्भ हुआ, तब राजा की उपस्थिति में देवताओं को बलि प्रदान करने के लिए एक बकरा लाया गया बकरे के पैर बंधे हुए थे और राजपुरोहित हाथ में 1 एक लम्बी छुरी लिये हुए उस मूक पशु के वध के लिए कटिबद्ध खड़ा था। उस निर्मम एवं दुःखान्त क्षण में जब उस निरीह पशु का प्राणान्त लगभग निश्चित था, गौतम ने आगे बढ़ कर कहा-"हे राजा इस क्रूर कर्म को रोक दीजिए" इतना कहने के पक्षात् उन्होंने आगे बढ़ कर उस बलि-पशु को मुक्त कर दिया। उन्होंने कहा- "जिस प्रकार मनुष्य जाति अपने जीवन की सुरक्षा चाहती है, उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन प्रिय है।" तब पश्चात्ताप की भावना से अनुतप्त पापी की भाँति पुरोहित ने छुरी फेंक दी और दूसरे दिन राजा ने एक राज्याज्ञा द्वारा देश भर में इस आशय का आदेश पारित कर दिया कि अब भविष्य में यज्ञ नहीं होंगे एवं लोगों को पशु-पक्षियों के प्रति दया का व्यवहार करना होगा।

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    युवा नारी किसा गौतमी (Kisagotami) का विवाह एक सम्पन्न व्यक्ति के इकलौते पुत्र के साथ हुआ था और उनके एक पुत्र था। दो वर्ष की अल्यापु में इस पुत्र का देहान्त हो गया । अपने पुत्र के प्रति किसा गौतमी की उत्कट अनुरक्ति थी । उसने उसे अपने वक्षस्थल से लगा लिया और उसको स्वयं से विलग करना अस्वीकार कर दिया। वह अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों के द्वार-द्वार पर जा कर उस औषधि की याचना करती रही जिससे उसका पुत्र पुनर्जीवित हो सके। एक बौद्ध भिक्षु ने उससे कहा—“मेरे पास ऐसी कोई औषधि नहीं है; किन्तु तुम भगवान् बुद्ध के पास जाओ । वे तुम्हें कोई रामबाण औषधि अवश्य प्रदान करेंगे। वे प्रेम तथा दया के सागर हैं।  तुम्हारा पुत्र पुनर्जीवित हो उठेगा। दुःखी होने की कोई आवश्यकता नहीं।" वह शीघ्र ही बुद्ध के पास जा कर बोली- “हे भन्ते, क्या आप इस बालक को कोई औषधि दे सकते हैं?” बुद्ध ने कहा- “हाँ, मैं तुम्हें एक अत्यन्त उपयोगी औषधि दूँगा। तुम किसी ऐसे घर से सरसों के बीज ले आओ जिसमें किसी बालक-बालिका, किसी पति, किसी, पत्नी, किसी पिता, किसी माता या किसी भृत्य की मृत्यु न हुई हो।" उसने कहा—“बहुत अच्छा, महोदय ! मैं इसे शीघ्र ही ला दूँगी।'

    अपने पुत्र को वक्षस्थल में लगाये उसने द्वार-द्वार पर जा कर सरसों के बीज की याचना की। घर के लोगों ने कहा-' -"लो, यह रहे सरसों के बीज।” किसा गौतमी ने पूछा – “क्या आपके घर में किसी पुत्र, किसी पति, किसी पत्नी, किसी पिता, किसी माता या किसी भृत्य की मृत्यु हुई है ?" उन्होंने उत्तर दिया- "हे देवी, तुम एक विचित्र प्रश्न पूछ रही हो। हमारे घर में कई लोगों की मृत्यु हो चुकी है।" किसी गौतमी ने एक दूसरे घर में जा कर ऐसे ही प्रश्न किये। गृहपति ने कहा – “इस घर में मेरे ज्येष्ठ पुत्र तथा मेरी पत्नी की मृत्यु हुई थी।" वह तीसरे घर में गयी। वहाँ के लोगों ने उससे कहा- “ इस घर में हमारे माता-पिता की मृत्यु हो चुकी है।" तब वह एक अन्य घर में गयी । वहाँ गृह स्वामिनी ने कहा- “गत वर्ष मेरे पति की मृत्यु हो गयी ।” अन्ततः किसा गौतमी कोई भी ऐसा घर नहीं पा सकी जहाँ किसी की भी मृत्यु न हुई हो। अब उसके मन में विवेक तथा वैराग्य जाग्रत हो गये। अपने पुत्र का अन्तिम संस्कार कर वह इस संसार में जीवन और मृत्यु की समस्या पर गम्भीरतापूर्वक मनन करने लगी ।

    तत्पश्चात् किसा गौतमी ने बुद्ध के निकट जा कर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। बुद्ध ने उससे कहा- “हे प्रिय बालिके, क्या तुम सरसों के बीज ले आयी हो ?” किसा गौतमी ने कहा-' बुद्ध -“मुझे ऐसा कोई घर नहीं मिला जहाँ किसी की मृत्यु न हुई हो।" ने कहा- “संसार के सभी पदार्थ नश्वर तथा क्षणिक हैं। यह संसार दुःख, अशान्ति तथा क्लेश से पूर्ण है। मनुष्य जन्म, मृत्यु, रोग, जरा तथा क्लेश से अशान्त रहता है। हमें अनुभव से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। हमें उन वस्तुओं की सम्प्राप्ति की आशा नहीं करनी चाहिए जिनका कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है। इस तृष्णा से हमें अनावश्यक दुःख तथा कष्ट होते हैं। मनुष्य को निर्वाण प्राप्त करना चाहिए। इसी से हमारे दुःखों का अन्त सम्भव है और तभी हमें अमरत्व तथा शाश्वत शान्ति की सम्प्राप्ति हो सकेगी।” इसके पश्चात् किसा गौतमी संघ में प्रविष्ट हो कर भिक्षुणी हो गयी ।

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    एक बार बुद्ध हाथ में भिक्षा पात्र लिये एक समृद्ध ब्राह्मण के घर गये । ब्राह्मण अत्यन्त क्रोधित हो कर बोला- “हे भिक्षु, तुम एक परिव्राजक का अकर्मण्य जीवन व्यतीत करते हुए भिक्षाटन क्यों कर रहे हो ? क्या यह कर्म अकीर्तिकर नहीं है ? तुम्हारा शरीर सुगठित है। तुम कोई व्यवसाय कर सकते हो। मैं कृषि कर्म में संलग्न हूँ और अपना पसीना बहा कर जीविकोपार्जन करता हूँ। मेरा जीवन एक श्रमिक का जीवन है। तुम्हारे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि तुम भी हल चला कर और खेत में बीज-वपन कर कृषि कर्म में संलग्न हो जाओ । उदर-पोषण के लिए इससे तुम्हें प्रचुर मात्रा में अन्न प्राप्त होगा।" बुद्ध ने कहा- "हे ब्राह्मण, मैं भी हल चला कर और खेत में बीज-वपन कर अन्नोत्पादन करता हूँ।" ब्राह्मण ने कहा- "तुम स्वयं को कृषक कहते हो, किन्तु मैं तुममें कृषक का कोई लक्षण नहीं देख रहा हूँ।" तब बुद्ध ने कहा—“हे ब्राह्मण, मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो। मैं श्रद्धा के बीज बोता हूँ। मेरे शुभ कर्म वर्षा है जिससे खेत का अभिसिंचन होता है। विवेक तथा वैराग्य मेरे हल के अंग, धर्म-परायणता इसकी मूठ, ध्यान अंकुश तथा शम-दम -मानसिक शान्ति एवं इन्द्रिय-निग्रह — बैल हैं। इस प्रकार मैं अपनी मनोभूमि पर हल चला कर विचिकित्सा, भ्रम, भय, जन्म तथा मृत्यु की अनावश्यक तृण-राशि का निरसन करता हूँ। इससे जिस शस्य की मुझे सम्प्राप्ति होती है, वह है निर्वाण का अमर फल। इस प्रकार के कृषि-कर्म से सभी दुःखों का अन्त हो जाता है।" बुद्ध के इस उपदेश के परिणाम-स्वरूप उस समृद्ध उद्धत ब्राह्मण को ज्ञान हो गया और वह उनके चरणों पर विनत हो कर उनका सामान्य अनुयायी बन गया ।


बुद्ध के उपदेश


महात्मा बुद्ध के 20 उपदेश⬇️🔴

    भगवान् बुद्ध अपने उपदेश में कहा करते थे – “हमें दुःख के कारण तथा दुःख-निरोध-म्गर्ग की खोज करनी चाहिए । विषयोपभोग के प्रति तृष्णा तथा सांसारिकता के प्रति आसक्ति दुःख का कारण है । यदि हम तृष्णा का उन्मूलन कर दें, तो दुःखों का अन्त हो जायेगा और हमें शाश्वत शान्ति तथा निर्वाण में निहित आनन्द की सम्प्राप्ति हो जायेगी । सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीवन, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति तथा सम्यक् समाधि - इस अष्टांगिक मार्ग के अनुसरण से हम दुःखों से मुक्त हो जायेंगे। हे भिक्षुओ, यही है वह मध्यम मार्ग जिसका बोध तथागत को पूर्णरूपेण हो चुका है। इससे अन्तर्दृष्टि तथा ज्ञान की उत्पत्ति होती है जिससे हम शान्ति, लोकोत्तर ज्ञान, पूर्ण सम्बोधि तथा निर्वाण की ओर उन्मुख होते हैं ।

    “हे भिक्षुओ, दुःख का आर्य सत्य वस्तुतः यही है । जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, अप्रिय पदार्थों से वियोग दुःखमय है । इच्छित पदार्थों से वियोग दुःखमय है । इच्छित पदार्थों की अनुपलब्धि भी दुःखमय है। संक्षेप में जागतिक सत्ता के प्रति आसक्ति के पाँचों स्कन्ध दुःखमय हैं । रूप, संज्ञा, वेदना, संस्कार तथा विज्ञान — यही पंच-स्कन्ध हैं।

    "हे भिक्षुओ, दुःख के कारण का सत्य यही है। यह वह तृष्णा है जो मनुष्य को ऐहिक सुख तथा व्यसनों से लिप्त सांसारिकता की ओर पुनः पुनः उत्प्रेरित किया करती है। यह उसे वैषयिक सुख तथा जीवन के प्रति सहज आसक्ति से ग्रस्त कर इतस्ततः सुख की खोज किया करती है। हे भिक्षुओ, यह दुःख-निरोध का आर्य सत्य है जो तृष्णा के पूर्ण विराम, इसके परित्याग, इसके आत्म-समर्पण, इसके प्रति अनासक्ति तथा इससे मुक्ति का पर्याय है। यह आर्य सत्य हमें दुःखों के प्रहाण की ओर अभिप्रेरित करता है। दुःख-निरोध नामक यह आर्य सत्य निश्चित रूप से अष्टांगिक मार्ग है जिसमें सम्यक् परामर्श आदि निहित हैं।”


*विषय कवर*

महात्मा बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं का वर्णन कीजिए
महात्मा बुद्ध का जन्म कहां हुआ था
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महात्मा बुद्ध के जीवन का वर्णन कीजिए
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महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति कहां हुई थी
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महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम क्या था

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प्रश्न: महात्मा बुद्ध का जन्म कहां हुआ था?

उत्तर: महात्मा बुद्ध का जन्म लुम्बिनी, नेपाल में हुआ था.

प्रश्न: महात्मा बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं का वर्णन कीजिए.

उत्तर: महात्मा बुद्ध ने जीवन के एक पहलू में संवाद का मार्ग चुना और उन्होंने चार महत्वपूर्ण सत्यों को प्रमाणित किया: जन्म, जरा, वृद्धि, और मृत्यु. उन्होंने अध्यात्मिक ज्ञान की खोज में अपने आत्मा को खोजा और बौद्ध धर्म की नींव रखी.

प्रश्न: महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति कहां हुई थी?

उत्तर: महात्मा बुद्ध को बोधगया (सारनाथ) में बोधि बृक्ष के नीचे बोधि प्राप्त हुई थी.

प्रश्न: महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम क्या था?

उत्तर: महात्मा बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था.

प्रश्न: महात्मा बुद्ध कौन थे?

उत्तर: महात्मा बुद्ध एक भगवान नहीं थे, वे भारतीय इतिहास में महापुरुष और धार्मिक गुरु के रूप में माने जाते हैं.

प्रश्न: महात्मा बुद्ध ने लोगों को अहिंसा का क्या संदेश दिया था?

उत्तर: महात्मा बुद्ध ने लोगों को अहिंसा का मार्ग दिखाया.

प्रश्न: महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम क्या था?

उत्तर: महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम यासोद्हरा था.

प्रश्न: महात्मा बुद्ध के पिता का नाम क्या था?

उत्तर: महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन था.

प्रश्न: महात्मा बुद्ध के माता का नाम क्या था?

उत्तर: महात्मा बुद्ध की माता का नाम माया देवी था.

प्रश्न: महात्मा बुद्ध के अनुसार वैर की शांति कैसे संभव है?

उत्तर: महात्मा बुद्ध के अनुसार, वैर की शांति सहमति, समझदारी, और समरसता के माध्यम से संभव है.

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