ज्योतिष शास्त्र

ज्योतिष का अर्थ | ज्योतिष का महत्त्व | वेदांग ज्योतिष | ज्योतिष-संबन्धी महत्त्वपूर्ण तथ्य | ज्योतिष विज्ञान हैं | उत्तरायण और दक्षिणायन

ज्योतिष का अर्थ :-

ज्योतिष का अर्थ है - ज्योतिर्विज्ञान । सूर्य, चन्द्र,ग्रह, नक्षत्र आदि आकाशीय पदार्थों की गणना ज्योतिर्मय पदार्थों में है। इनसे संबद्ध विज्ञान को ज्योतिष या ज्योतिर्विज्ञान (Astronomy) कहते हैं । लगध ने इसको 'ज्योतिषाम् अयनम्' (श्लोक ३) अर्थात् नक्षत्रों आदि की गति का विवेचन करने वाला शास्त्र कहा है। लगध ने ज्योतिष के लिए एक दूसरा शब्द दिया है कालज्ञानशास्त्र या कालविज्ञान- -शास्त्र (कालज्ञान प्रवक्ष्यामि श्लोक २) । इसमें कालचक्र, संवत्सरचक्र तथा कालसंबन्धी तथ्यों का विवेचन किया जाता है। इस प्रकार ज्योतिष में कालविज्ञान और ज्योतिर्विज्ञान दोनों का समन्वय है।


ज्योतिष का महत्त्व :-

वेदों में यज्ञ का सर्वाधिक महत्त्व है। यज्ञों के लिए समय निर्धारित हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण का कथन है कि ब्राह्मण वसन्त में अग्नि की स्थापना करे, क्षत्रिय ग्रीष्म में और वैश्य शरद् ऋतु में । इसी प्रकार तांड्य ब्राह्मण में कथन है कि दीक्षा एकाष्टका (माघ कृष्णा ८) के दिन या फाल्गुन की पूर्णिमा को ले। इसी प्रकार अन्य यज्ञों के लिए काल निर्धारित हैं। काल के ज्ञान के लिए ज्योतिष की अत्यन्त आवश्यकता है। अतएव वेदांग ज्योतिष में कहा गया है कि यज्ञ के निर्धारित काल के ज्ञान के लिए ज्योतिष का ज्ञान आवश्यक है। उसी में यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार मोर की शिखा और सर्पों की मणि सिर के सर्वोपरि स्थान में हैं, उसी प्रकार गणित ( गणितज्योतिष) सारे वेदांगों में मूर्धन्य है। पाणिनि ने इसे विराट् पुरुष के नेत्र का स्थान दिया है, क्योंकि यह यज्ञादि के लिए मार्गदर्शन करता है ।

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(क) वेदा हि यज्ञार्थमभि प्रवृत्ताः कालानुपूर्व्या विहिताश्च यज्ञाः । तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं, यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् ।। वेदांग ज्योतिष, याजुष० श्लोक ३


(ख) यथा शिखा मयूराणां, नागानां मणयो यथा । तद्वद् वेदांगशास्त्राणां, गणितं मूर्धनि स्थितम् ।। वेदांग० या० ४ (ग) ज्योतिषामयनं चक्षुः । पा० शिक्षा ४१


लगध का वेदांग ज्योतिष :-

ज्योतिष-विषयक केवल एक ही प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध है। वह है महर्षि लगध- कृत 'वेदांग ज्योतिष' । यह ग्रन्थ दो भागों में मिलता है। एक का नाम है' आर्च ज्योतिष' अर्थात् ऋग्वेद-संबन्धी ज्योतिष, दूसरे का नाम है 'याजुष ज्योतिष' अर्थात् यजुर्वेद- संबन्धी ज्योतिष । प्रथम भाग में ३६ श्लोक हैं और द्वितीय भाग में ४३ । बहुत से श्लोक दोनों भागों में समान हैं। इसके लेखक महर्षि लगध माने जाते हैं। ग्रन्थ की भाषा बहुत क्लिष्ट और दुरूह है, अत: अनेक विशेषज्ञों के प्रयत्न के बाद भी कुछ श्लोक अभी तक अस्पष्ट हैं। दोनों भागों में कहा गया है कि यह ग्रन्थ यज्ञकार्य के लिए शुभ मुहूर्त आदि का ज्ञान कराने हेतु लिखा गया है।


ज्योतिषामयनं कृत्स्नं, प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः ।

 विप्राणां संमतं लोके, यज्ञकालार्थसिद्धये ।। आर्च० ३, याजुष २


इस पर एक प्राचीन टीका सोमाकर की प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ पर अनेक पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने बहुत परिश्रम किया है। इनमें विशेष उल्लेखनीय हैं : सर विलियम जोन्स, प्रो० वेबर, प्रो० व्हिटनी प्रो० कोलब्रुक, डा० थीबो, पं० शंकर बालकृष्ण दीक्षित, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, पं० सुधाकर द्विवेदी, श्री शामशास्त्री, डा० सत्यप्रकाश सरस्वती, प्रो० टी०एस० कुप्पन्न शास्त्री आदि ।


वेदांग ज्योतिष का समय :-

प्रो० कुप्पन शास्त्री ने विभिन्न मतों के आलोचनात्मक अध्ययन के बाद वेदांग ज्योतिष का समय १३७० ई० पूर्व निर्धारित किया है। श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने भी सप्रमाण सिद्ध किया है कि इसका रचनाकाल १४०० ई०पू० है ।


वेदांग ज्योतिष के वर्ण्य विषय:-

इसके मुख्य वर्ण्य विषय ये हैं : १. काल का विभाजन, २. नक्षत्र और नक्षत्र देवता, ३. युग के वर्ष ४. काल और तिथि का निर्णय, ५. अयन और पर्व निर्धारण, ६. नक्षत्रों का काल विभाजन ७. तिथि नक्षत्र, ८. नक्षत्र और पर्व का काल-निर्धारण, ९. अधिक मास आदि ।

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 काल-विभाजन : काल-विभाजन इस प्रकार दिया हैं।

१० मात्रा = १ काष्ठा, १२४ काष्ठा = १ कला, १०+१/२ कला = १ नाडिका (२४ मिनट), २ नाडिका = १ मुहूर्त (४८ मिनट), ३० मुहूर्त = १ दिन (अहोरात्र, २४ घंटे), ३६६ दिन = १ सौर वर्ष (अर्थात् १२ सौर मास, ६ ऋतु, २ अयन उत्तरायण और दक्षिणायन), ५ सौर वर्ष = १ युग ।


एक युग के ५ सौर वर्षों के नाम :

वेदांग ज्योतिष का कथन है कि ५ सौर वर्षों का एक युग होता है। 

युगस्य पंचवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते । याजुष ५, आर्च० ३२ इन ५ वर्षों के नाम यजुर्वेद में ये दिए हैं : संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर । यजु० २७.४५

यही नाम शतपथ ब्राह्मण (८.१.४.८) में भी दिए हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.१०.४.१) और तैत्तिरीय आरण्यक (४.१९.१) में एक नाम में थोड़ा अन्तर है। इनमें चतुर्थ वर्ष का नाम अनुवत्सर और पंचम का नाम इद्वत्सर दिया है। ये नाम इस प्रकार हैं:

संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर ।

 ५ वर्ष का युग मानने का कारण यह है कि ठीक ५ वर्ष बाद सूर्य और चन्द्रमा राशिचक्र के उसी नक्षत्र पर पुनः एक सीध में होते हैं ।



२७ नक्षत्रों के नाम इसमें एक ही श्लोक में २७ नक्षत्रों के नाम दिए गए हैं। प्रत्येक नक्षत्र का आदि, मध्य या अन्त का एक अक्षर लिया गया है। यह श्लोक लगध के पांडित्य का प्रदर्शक है कि एक छोटे से अनुष्टुप (३२ अक्षर वाले) छन्द मे २० नक्षत्रों के नाम दे दिए हैं और शेष ५ अक्षर में अपनी शेष बात भी पूरी कह दी है।


जौ द्रा गः खे वे उही रो पा

चिन् मू ष ण्यः सूमा धा णः ।

रे मृ घाः स्वा ऽऽपो ऽजः कृ ष्यो

ह ज्ये ष्ठा इत्यृक्षा लिंगैः । याजुष १८, आर्च १४


इसका विवरण इस प्रकार है। जौ अश्वयुजौ (अश्विनी), द्रा= आर्द्रा, गः = भगः (उत्तरा फल्गुनी), खे = विशाखे (विशाखा), वे = विश्वेदवाः (उत्तरा अषाढा), अहिः = अहिर्बुध्न्य (उत्तरा भाद्रपदा), रो= रोहिणी, षा = आश्लेषा, चित् = चित्रा, मू = मूल ष = शतभिषक् ण्यः = भरण्यः (भरणी), सू= पुनर्वसू (पुनर्वसु), मा = अर्यमा (पूर्वा फल्गुनी), घा = अनुराधा, णः = श्रवणः (श्रवणा), रे= रेवती, मृ= मृगशिरस् (मृगशिरा), घाः = मघाः (मघा), स्वा = स्वाति, आपः = आप (पूर्वा अषाढा), अजः = अज एकपाद् (पूर्वा भाद्रपदा), कृ = कृत्तिका: (कृत्तिका) घ्यः = पुष्य, ह = हस्त, ज्ये= ज्येष्ठा, ष्ठाः = श्रविष्ठा ।

ज्योतिष के परकालीन ग्रन्थों में १२ राशियों का मुख्यरूप से उल्लेख मिलता है, परन्तु वेदांग ज्योतिष में राशियों का कहीं भी नामोल्लेख नहीं है ।


 ज्योतिष-संबन्धी महत्त्वपूर्ण तथ्य :

वेदों में ज्योतिष संबन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य दिए गए हैं। यहाँ संक्षेप में कुछ तथ्यों का उल्लेख किया जा रहा है :

१. काल ब्रह्म है :

ज्योतिष काल-विज्ञान-शास्त्र है। अथर्ववेद (कांड १९. सूक्त ५३,५४) और मैत्रायणी उपनिषद् में काल को ब्रह्म बताया गया है । काल (Time) ही सृष्टि का कर्ता-धर्ता है। सूर्य ही काल का आधार है।

 (क) कालो ह ब्रह्म भूत्वा बिभर्ति परमेष्ठिनम् । अथर्व० १९.५३.९

(ख) कालं ब्रह्म- इति-उपासीत । मैत्रा० उप० ६.१४

(ग) सूर्यो योनिर्वै कालस्य । मैत्रा० उप० ६.१४


२. ज्योतिष विज्ञान हैं :

यजुर्वेद का कथन है कि ज्योतिष विज्ञान (प्रज्ञान ) है। इसमें ग्रह, नक्षत्रों आदि की गति का अध्ययन होता है ।

प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शम् । यजु० ३०.१०


 ३. सूर्य संसार की आत्मा है :

ऋग्यजुः और अथर्व वेदों में वर्णन है कि सूर्य चर और अचर जगत् की आत्मा है ।

सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च । ऋ० १.११५.१ । यजु० ७.४२ 


४. सात सौर मण्डल :

अथर्ववेद का कथन है कि सात सौर मण्डल हैं अर्थात् हमारे सौरमण्डल की तरह सात बड़े सौर मंडल हैं।

यस्मिन् सूर्या अर्पिताः सप्त साकम् । अथर्व० १३.३.१० 


५. सूर्य अनेक हैं :

 ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि सूर्य अनेक हैं ।

सात दिशाएँ हैं। उनमे अनेक सूर्य हैं।

सप्त दिशो नानासूर्याः । ऋ० ९.११४.३ 


६. सूर्य की किरणें सात रंग की हैं:

अथर्ववेद का कथन है कि सूर्य की सात किरणें हैं और इनके कारण वर्षा होती है।

अव दिवस्तारयन्ति सप्त सूर्यस्य रश्मयः । अथर्व० ७.१०७.१


७. सूर्य की किरणों से सारे रंग बनते हैं:

अथर्ववेद का कथन है कि सूर्य की = २१ प्रकार की किरणों से ही सारे रंग बनते हैं। सूर्य ही संसार की सभी वस्तुओं को रंग देता है। इसका अभिप्राय यह है कि सूर्य की सात रंग की किरणें ही गहरी, मध्यम और हल्की इन तीन रूपों में होकर २१ प्रकार की हो जाती हैं। ये ही सभी वस्तुओं को रंग देती हैं।

ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि विभ्रतः । अथर्व० १.१.१


 ८. सूर्य के आकर्षण से पृथिवी रुकी है :

ऋग्वेद और यजुर्वेद में वर्णन है। कि सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी को रोके हुए हैं।

(क) सविता यन्त्रः पृथिवीम् अरम्णात् । ऋ० १०.१४९.१

(ख) त्वम् ...चकृषे भूमिम् (ऋग्० १.५२.१२)

 (ग) दाधर्थं पृथिवीम् अभितो मयूखैः । यजु० ५.१६


९. सूर्य और पृथिवी दोनों में आकर्षण शक्ति है :

ऋग्वेद के एक मंत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि सूर्य और पृथिवी दोनों में आकर्षण शक्ति है। दोनों एक-दूसरे को सदा अपनी ओर खींच रहे है।

एको अन्यत् चकृषे विश्वम् आनुषक् । ऋ० १.५२.१४


 १०. पृथिवी सूर्य की प्रदक्षिणा करती है :

ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में उल्लेख है कि पृथिवी सूर्य की प्रदक्षिणा करती है ।

(क) क्षाः शुष्णं परि प्रदक्षिणित् । ऋग्० १०.२२.१४ 

(ख) आयं गौः पृश्निरक्रमीद् असदन् मातरं पुरः ।

पितरं च प्रयन् स्वः । ऋग्० १०.१८९.१ । यजु० ३.६ । अ० ६.३१.१ इसी बात को आर्यभट्ट (४७६ ई०) ने आर्यभटीय में लिखा है कि पृथिवी १ प्राण (४ सेकेण्ड) में १ कला घूमती है और २१,६०० प्राण (२४ घंटे) में अपना एक चक्र (३६० अंश) पूरा कर लेती है ।

(क) प्राणेनैति कलां भूः । आर्यभटीय, दशगीतिका ४

(ख) भूमिः प्राङ्मुखी भ्रमति । आर्यभटीय के टीकाकार मक्की भट्ट 


११. सूर्य और सारा संसार घूमता है:

 यजुर्वेद ने एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य का उल्लेख किया है कि सूर्य, पृथिवी और सारा संसार घूमता है। ऋग्वेद का क है कि सूर्य अपने सौर-चक्र (सौर मंडल) को घुमाता है ।

(क) समाववर्ति पृथिवी समुषाः समु सूर्यः ।

समु विश्वमिदं जगत् । यजु० २०.२३

(ख) अवर्तयत् सूर्यो न चक्रम् । ऋ० २.१२.२०


 १२. वर्षचक्र घूमता है : 

ऋग्वेद में उल्लेख है कि यह वर्षचक्र द्युलोक में निरन्तर धूम रहा है।

वर्वर्ति चक्रं परि द्याम् ऋतस्य । ऋग० १.१६४.१


१३. सूर्य से चन्द्रमा में प्रकाश है:

यजुर्वेद का कथन है कि सूर्य की सुषुम्ण नाम की किरण चन्द्रमा को प्रकाशित करती है। यास्क ने निरुक्त में भी उल्लेख किया है। कि सूर्य की एक किरण चन्द्रमा को प्रकाशित करती है।

(क) सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वः । यजु० १८.४०

(ख) आदित्यतोऽस्य दीप्तिर्भवति । निरुक्त २.६


१४ सूर्य न उदय होता है और न अस्त होता है :

ऐतरेय ब्राह्मण और गोपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि सूर्य न कभी उदय होता है और न अस्त होता है। रात्रि के अन्त को सूर्योदय कह देते हैं और दिन के अन्त को सूर्यास्त कह देते हैं। सूर्य अपने स्थान पर सदा ज्योतिर्मय है ।

(क) स वा एष (आदित्य) न कदाचनास्तमेति नोदेति । ऐत。ब्रा० ३.४४

 (ख) स वा एष (आदित्य) न कदाचनास्तमयति नोदयति । गोपथ ब्रा० २.४.१०


 १५. अहोरात्र में तीस मुहूर्त :

 एक अहोरात्र (दिनरात) में तीस मुहूर्त होते हैं। मंत्र में मुहूर्त के लिए 'धाम' शब्द है।

 त्रिंशद् धाम विराजति वाक् .... प्रतिवस्तोः ० ।यजु० ३.८ 


१६. एक वर्ष में बारह मास:

ऋग्वेद का कथन है कि वर्षचक्र में १२ अरे अर्थात् मास होते हैं।

द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य । ऋग्० १.१६४.११ 



१७. विषुवत् रेखा :

ऋग्वेद और अथर्ववेद में विषुवत् रेखा (मध्यवर्ती रेखा) का उल्लेख है। मंत्र में उत्तरायण या ऊपरी भाग की ओर जाने के लिए 'पर' और दक्षिणायन या नीचे की ओर जाने के लिए 'अवर' शब्द है।

 विषुवता पर एनावरेण । ऋ० १.१६४.४३ । अ० ९.१०.२५


१८. उत्तरायण और दक्षिणायन :

वेदांग ज्योतिष का कथन है कि सूर्य और चन्द्रमा दोनों श्रविष्ठा नक्षत्र के आदि में उत्तर की ओर गति करते हैं, अर्थात् तब उत्तरायण प्रारम्भ होता है और आश्लेषा (सार्प) के मध्य में दक्षिणायन प्रारम्भ होता है। सूर्य माघ में उत्तर की ओर और श्रावण में दक्षिण की ओर गति प्रारम्भ करता है। यही भाव मैत्रायणी उपनिषद् (६.१४) में भी प्रकट किया गया है।

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक् ।

सार्पार्धे दक्षिणार्कस्तु माघश्रावणयोः सदा । वेदांग आर्च० ६


 १९. ग्रहों का उल्लेख :

 अथर्ववेद में शं नो दिविचरा ग्रहाः' (१९.९.७) में आकाशीय ग्रहों का उल्लेख है। एक मंत्र (अ० १९.९.१०) में चार ग्रहों के नाम दिए हैं: चन्द्रमा, सूर्य, राहु, धूमकेतु या केतु । शतपथ ब्राह्मण (१४.६.२.१) में 'अष्टौ ग्रहाः " के द्वारा आठ ग्रहों का निर्देश है।


२०. बारह राशियाँ :

ऋग्वेद के एक मंत्र में 'द्वादश प्रधयः चक्रमेकम्०' (१.६४.४८) में 'प्रधि' (हाल, इत्त्व, ऊबे) शब्द से १२ राशियों का उल्लेख माना जाता है।


२१. नक्षत्रों के नाम और देवता:

 अथर्ववेद (१९.७.१ से ५), तैत्तिरीय संहिता (४.४.१०.१ से ३) और मैत्रायणी संहिता (२.१३.२०) में २८ नक्षत्रों के नाम दिए गए हैं। तैत्तिरीय संहिता में केवल २७ नक्षत्र और उनके देवताओं का उल्लेख है। इनमें अभिजित् नक्षत्र को छोड़ दिया गया है।


२२. सावन दिन, मास, वर्ष : 

सूर्योदय से लेकर अगले दिन सूर्योदय तक के २४ घंटे के समय को सावन दिन कहते हैं। सावन शब्द सवन (यज्ञ) शब्द से बना है। ऐसे ३० दिन का एक मास और ऐसे १२ मास का एक वर्ष माना जाता है। सावन वर्ष में केवल ३६० दिन होते हैं।



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