संस्कार: हिंदू जीवन के आधार स्तंभ | 16 संस्कारों के नाम
संस्कारों का महत्व
संस्कार क्या है?
- गौतम धर्म सूत्र के अनुसार, संस्कार वह है जिससे दोष हटते हैं और गुणों की वृद्धि होती है।
- शंकराचार्य के अनुसार, संस्कार वे क्रियाएं हैं जो व्यक्ति में गुणों का आरोपण करती हैं या उसके दोषों को दूर करती हैं।
- महर्षि चरक के अनुसार, संस्कार व्यक्ति या वस्तु में नए गुणों का आधान करने की प्रक्रिया है।
- संस्कारों का महत्व:
- संस्कार व्यक्ति के मन के विकारों को नष्ट करते हैं और उसे आत्म-नियंत्रित, प्रभावशाली और जीवन को आनंदपूर्ण बनाते हैं।
- संस्कार व्यक्ति को जन्मजात दोषों से मुक्त करते हैं और उसे द्विज बनाते हैं।
- संस्कार व्यक्ति के पूर्व जन्मों के बुरे संस्कारों का प्रभाव कम करते हैं और उसे अच्छे कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं।
- संस्कार व्यक्ति को सामाजिक और नैतिक मूल्यों का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं।
- संस्कार व्यक्ति को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करते हैं।
संस्कारों के प्रकार:
- विभिन्न विद्वानों ने संस्कारों की संख्या अलग-अलग बताई है।
- गौतम स्मृति में 40 संस्कारों का उल्लेख है।
- महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार बताए हैं।
व्यास स्मृति में प्रमुख 16 संस्कारों का उल्लेख है:
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च।नामक्रियानिष्क्रमणे अन्नाशनं वपनक्रियाः।।कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधिः।केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः ।।त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः। (व्यासस्मृति 1/13-15)
- गर्भाधान,
- पुंसवन,
- सीमन्तोन्नयन,
- जातकर्म,
- नामकरण,
- निष्क्रमण,
- अन्नप्राशन,
- चूड़ाकर्म,
- विद्यारंभ,
- कर्णवेध,
- यज्ञोपवीत,
- वेदारम्भ,
- केशान्त,
- समावर्तन,
- विवाह,
- अन्त्येष्टि।
संस्कार: हिंदू जीवन के आधार स्तंभ
परिचय: हिंदू धर्म में संस्कारों का महत्व संस्कार का अर्थ और सार
संस्कारों का प्रभाव:विभिन्न जीवन चरणों में संस्कार (उदाहरण सहित)
गर्भाधान संस्कार :-
गर्भाधान उसको कहते हैं कि जो “गर्भस्याऽऽधानं वीर्यस्थापनं स्थिरीकरणं यस्मिन् येन वा कर्मणा, तद् गर्भाधानम्" गर्भ का धारण, अर्थात् वीर्य का स्थापन गर्भाशय में स्थिर करना जिससे होता है।
जैसे बीज और क्षेत्र के उत्तम होने से अन्नादि पदार्थ भी उत्तम होते हैं, वैसे उत्तम, बलवान् स्त्री-पुरुषों से [उत्पन्न ] सन्तान भी उत्तम होते हैं ।
पुंसवन संस्कार :-
गर्भाधान हो जाने के पश्चात् 'पुंसवन' की प्रथम संस्कार के रूप में गणना की जा सकती है। स्मरण रहे कि ये प्राग्जन्म संस्कार दो उद्देश्यों से किये जाते हैं। एक ओर तो ये क्षेत्र (पत्नी जिसने अपने गर्भ में भ्रूण को धारण किया हुआ है) का संस्कार है, दूसरी ओर यह स्वयं गर्भस्थ जीव का भी संस्कार है
पुंसवन संस्कार गर्भ के दूसरे या तीसरे मास में किसी भी दिन तद किया जाता है, जब गर्भ के लक्षण तो दिखाई देने लगें, किन्तु अभी गर्भस्थ भ्रूण हिलने-डुलने न लगा हो, (पुरा स्पन्दते) अर्थात् भ्रूण के फड़कने या हिलने-डुलने से पहले यह संस्कार किया जाय ।
पुंसवन संस्कार का उद्देश्य इसके नाम में ही निहित है। जैसे कि पुमान् सूयते इति पुंसवनम् । इसका आशय यह है कि पुरुष या पौरुषयुक्त सन्तान उत्पन्न हो न कि अशक्त और कमजोर ।
इस समय तक गर्भधारण के लक्षण भी प्रकट होने लगते हैं, अतः परिवार वालों को र्गाभणी महिला के आहार-विहार एवं आचार-विचार आदि का अब विशेष ध्यान रखना होता है । इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही 'पुंसवन संस्कार' का विधान किया गया है।
आजकल यद्यपि पुंसवन सस्कार का प्रचलन प्रायः उठ-सा गया है, किन्तु पंजाब में अब भी 'छोटी रीतां के नाम से इस संस्कार का लौकिक रूप प्रचलित है।
सीमन्तोन्नयन संस्कार :-
अब तीसरा संस्कार 'सीमन्तोन्नयन' कहते हैं, जिससे गर्भिणी स्त्री का मन सन्तुष्ट, आरोग्य, गर्भ स्थिर, उत्कृष्ट होवे और प्रतिदिन बढ़ता जावे।
अर्थ-गर्भमास से चौथे महीने में शुक्लपक्ष में जिस दिन मूल आदि पुरुष नक्षत्रों से युक्त चन्द्रमा हो, उसी दिन सीमन्तोन्नयन संस्कार करें और पुंसवन-संस्कार के तुल्य छठे, आठवें महीने में पूर्वोक्त पक्ष, नक्षत्रयुक्त चन्द्रमा के दिन सीमन्तोन्नयन-संस्कार करें ।
जातकर्म संस्कार :-
गर्भाधान, पुंसवन और सीमग्तोन्नयन इन तीन प्राग्जन्म संस्कारों के पश्चात् जब बच्चे का जन्म हो जाता है तो शैशव के संस्कारों का क्रम आरम्भ होता है। इनमें से सर्वप्रथम जात- कर्म तो बच्चे के जन्म लेते ही तत्काल सम्पन्न किया जाता है। जातकर्म संस्कार का विधि- विधान पारस्कर ने अपने गृह्यसूत्र के प्रथम काण्ड की सोलहवी कण्डिका के २५ सूत्रों में किया है। इस पूरी कण्डिका में बच्चे के उत्पन्न होते ही नवजात शिशु तथा प्रसूतिका या जच्चा और बच्चा दोनों के बारे में जिन विधि-विधानों का वर्णन किया गया है, उनमें से अनेक स्वास्थ्य एवं चिकित्सा की दृष्टि से हितावह हैं, तथा कुछ का सम्बन्ध बालक के आध्यात्मिक विकास से है।
नामकरण संस्कार :-
काल-जिस दिन जन्म हो उस दिन से लेके १० दिन छोड़ ग्यारहवें वा एक सौ एकवें अथवा दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो, नाम धरे।
जिस दिन नाम धरना हो उस दिन अति प्रसन्नता से इष्ट- मित्र, हितैषी लोगों को बुला यथावत् सत्कार कर क्रिया का आरम्भ यजमान-बालक का पिता और ऋत्विज करें।
शिशु के जन्म के ग्यारहवें दिन के पश्चात् पहली वर्षगांठ के दिन तक सुविधानुसार यह संस्कार किया जा सकता है। ये नाम पांच प्रकार के बताये गये हैं, किन्तु आजकल - १. जन्म नाम या राशि नाम २. प्रसिद्ध नाम तथा ३. (बच्चों के लिए विशेष रूप से प्रयुक्त कोई प्यार का नाम) ये तीन नाम ही प्रचलित हैं। यूं भी देवतानाम और मासनाम ये दोनों नाम गोप्य होते हैं। नामकरण जब ग्यारहवें दिन ही कर दिया जाय तो उससे पूर्व सूतिकाशुद्धि और निष्क्रमण-संस्कार भी किये जाते हैं। क्योंकि, सूतिकाशुद्धि के बिना तो कोई संस्कार होगा ही कैसे ? अस्तु ।
नामकरण संस्कार प्रमुख कर्त्तव्य-विधियां
१. ग्यारहवें दिन प्रातः शिशु एवं उसके माता-पिता को शुद्ध जल से (हो सके तो गंगा जल मिलाकर) स्नान कर शुद्ध बस्त्र पहना दें।
२. स्वस्तिवाचन एवं गणपत्यादि पूजन ।
३. हवन ।
४. पञ्चगव्य का हवन ।
५. हुतशेष पञ्चगव्य को सूतिका एवं शिशु को पिलाना तथा सूतिकागार में छिड़कना ।
६. निष्क्रमण, सूर्यदर्शन ।
७. नामकरण संस्कार ।
८. भूम्युपवेशन ।
६. जल-पूजन ।
१०. पूर्णाहूति एवं ब्राह्मण भोजन आदि।
निष्क्रमण संस्कार :-
'निष्क्रमण' संस्कार उसको कहते हैं कि जो बालक को घर से जहाँ का वायु, स्थान शुद्ध हो, वहाँ भ्रमण कराना होता है। उसका समय जब अच्छा देखें तभी बालक को बाहर घुमावें । अथवा चौथे मास में तो अवश्य भ्रमण करावें ।
निष्क्रमण-संस्कार के काल के दो भेद हैं-एक बालक के जन्म के पश्चात् तीसरे शुक्लपक्ष की तृतीया और दूसरा चौथे महीने में जिस तिथि में बालक का जन्म हुआ हो उस तिथि में यह संस्कार करे।
अन्नप्राशन संस्कार :-
चूड़ाकर्म संस्कार :-
हिन्दी का 'चोटी' शब्द सं० चूड़ा से ही बना है। अतएव 'चूड।' इस नाम से ही स्पष्ट सिद्ध एवं प्रमाणित होता है कि यह 'मुण्डन' संस्कार न होकर शिखा या चोटी रखने का संस्कार है। 'चौल' एवं 'मुण्डन' संस्कार इसके नामान्तर भले ही हों। यह बात दूसरी है कि आजकल 'चौल' और 'चूड़ाकरण' इन दोनों शब्दों की अपेक्षा 'मुण्डन संस्कार' यह शब्द अधिक चल निकला है। चूड़ाकरण संस्कार एक वर्ष की आयु का जब बालक हो जाता है, तब उस समय किया जाता है, जबकि उसकी चूड़ा या चोटी रखने के लिए लम्बे बाल उग आए हों और वह चोटी ऐसी हो जिसमें शिखा-बन्धन किया जा सके। क्योंकि कहा गया है कि-
इस प्रकार एक वर्ष में शिशु के इतने लम्बे बाल हो जाते है कि बाकी सारे सिर के बालों के मुण्डन हो जाने पर रखी गयी शिखा में ग्रन्थि लगाई जा सके ।
इस शास्त्रीय महत्त्व के सिवा लौकिक दृष्टि से भी चूड़ाकरण संस्कार का अन्य महत्त्व भी है। एक दो बार सिर के जन्मजात बाल यदि काट दिए जायें तो दुबारा नए सुन्दर-स्वस्थ बाल उगते हैं और इससे खुजली आदि चर्म रोगों की भी आशंका नहीं रहती ।
कर्णवेध संस्कार :-
विद्यारंभ संस्कार :-
आज कल तो नगरों में प्रायः माता और पिता दोनो ही प्रातः ही काम पर निकलते हैं। और अपने बच्चों को तीन वर्ष का होते ही वे पढ़ने के लिये नर्सरी स्कूल में प्रविष्ट करवा देते हैं। तीन वर्ष का बालक पढ़ेगा तो क्या, स्कूल या नर्सरी में ५-६ घण्टे तक बालक की देख भाल हो जाती है। अभी वह वहाँ कुछ खिलौनों से खेलता रहता है।
ये नर्सरी स्कूल भी मा बाप की विवशता का लाभ उठा कर मन मानी फीस वसूल करते हैं। कम से कम पचीस तीस रुपये मासिक से लेकर सौ दो सौ रुपये मासिक तक तो फीस और ऊपर से नाना विध चन्दे यूनीफार्म आदि के व्यय अलग ।
किन्तु पहले ऐसा नहीं होता था। 'पञ्चमे वर्षे विद्यारंभं कारयेत्' इस नियम के अनुसार पांचवे वर्ष में बालक की पढ़ाई आरम्भ होती थी। सो भी यूंही नहीं होती, मुहूर्त देख कर विधि- पूर्वक विद्यारम्भ होता था। बालक को पाठशाला में लेजाकर या घर पर ही गणेश सरस्वतीआदि के पूजन के पश्चात् पाटी पर कुकुम आदि बिछा कर अंगुली से लिखना सिखाया जाता था । पहले 'ॐ नमः सिद्धम' लिखाया और बुलाया जाता था। फिर प्रायः गिनती तथा ब्राह्मण बालक को शब्द रूपावली, अष्टाध्यायी आदि के सूत्र मौखिक रूप से कण्ठस्थ कराये जाते थे। इसी बीच बालक लिखना पढ़ना भी सीख लेता था। बालक का जब विद्यारम्भ किया जाता था तो गुरुजी का पूजन कर उन्हें साफा और दक्षिणा आदि भेंट किये जाते थे तथा गणेश जी के प्रसाद स्वरूप लड्डू बॉटे जाते थे। बस इसके बाद कोई फीस आदि नहीं देनी पड़ती थी। हाँ गुरुजी तथा उनके परिवार के पालन रोषण का दायित्व समाज अपने ऊपर ले लेता था। आज भी यत्र- तत्र गावो में और कहीं कहीं शहरों में भी यह प्राचीन परिपाटी सुरक्षित दिखाई देती है। इस प्रकार धनी हो या निर्धन सभी लोग समान रूप से पढ़ लिख जाते थे और निरक्षरता का तो कहीं नाम भी नहीं था । किन्तु आज पाश्चात्य शिक्षा के कारण बहुसंख्यक जन निरक्षर हैं। इसके विपरीत अब बड़े बूढ़ो को पढ़ाने के लिये प्रौढ़ पाठशालाएं खोली जाती है। बूढ़े तोते पड़ेंगे तो क्या उनके नाम पर सरकार का लाखों रुपया व्यय अवश्य हो जाता है।
आवश्यक सामग्री - विद्यारम्भ संस्कार के लिए कुछ विशेष सामग्री अपेक्षित नहीं है। केवल यज्ञ व पूजन द्रव्य और गुरुजी को देने के लिये साफा एक लकड़ी की पाटी (तब्ती) और उस पर बिछाने के लिये कुंकुम आदि तथा गुरुजी के गले में डालने के लिए हार आदि।
यज्ञोपवीत संस्कार :-
वेदारम्भ संस्कार :-
केशान्त संस्कार :-
समावर्तन संस्कार :-
विवाह संस्कार :-
विवाहित जीवन के दौरान दंपत्ति को पंचमहायज्ञों का पालन करना होता है।
अन्त्येष्टि संस्कार :-
संस्कारों के स्थायी महत्व:अनुष्ठानों से परे - मूल्यों और सिद्धांतों का महत्व
आधुनिक युग में संस्कारों का महत्व:
- आधुनिक युग में भी संस्कारों का महत्व कम नहीं हुआ है।
- संस्कार व्यक्ति को सही और गलत का ज्ञान देते हैं और उसे अच्छे जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं।
- संस्कार व्यक्ति को सामाजिक और नैतिक मूल्यों का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं।
- संस्कार व्यक्ति को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करते हैं।
आधुनिक दुनिया में संस्कार:प्रासंगिकता कम होती या बदलती हुई प्रतीत होती है?
आधुनिक दुनिया में विरासत को अपनाना:
- सरलीकृत दृष्टिकोण: व्यस्त जीवनशैली में छोटे, सार्थक समारोह शामिल किए जा सकते हैं।
- सार पर ध्यान दें: प्रत्येक संस्कार के पीछे अंतर्निहित मूल्यों और सिद्धांतों को समझने पर जोर दिया जा सकता है।
- समुदाय जुड़ाव: संस्कारों के सामुदायिक उत्सव सामाजिक बंधन और सांस्कृतिक पहचान को मजबूत कर सकते हैं।
संस्कारों को अपनाना:समकालीन परिदृश्य में अनुकूलन
कुछ तरीके जिनसे हम संस्कारों को अपना सकते हैं:
निष्कर्ष:संस्कारों की समृद्ध विरासत का महत्व
इन्हें भी देखें।
FAQ
संस्कार क्या हैं? क्या वे केवल परंपरागत रस्में हैं?
संस्कार जीवन के विभिन्न चरणों में किए जाने वाले पवित्र अनुष्ठान हैं। वे केवल रस्में नहीं हैं, बल्कि व्यक्तिगत, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास के लिए मील के पत्थर के रूप में कार्य करते हैं। वे मूल्यों और सिद्धांतों की एक प्रणाली का प्रतिनिधित्व करते हैं और जीवन जीने का एक आदर्श तरीका प्रस्तुत करते हैं।
कितने संस्कार हैं और उनका उद्देश्य क्या है?
हिंदू धर्म में 16 संस्कार होते हैं, प्रत्येक का अपना विशिष्ट उद्देश्य होता है। उदाहरण के लिए, जन्म संस्कार नवजात शिशु का स्वागत करता है, विवाह संस्कार गृहस्थ जीवन की स्थापना करता है, और अंतिम संस्कार मृतक की आत्मा को मुक्ति दिलाता है।
क्या आज की दुनिया में संस्कार प्रासंगिक हैं?
संस्कारों के मूल सिद्धांत सदियों से कालातीत साबित हुए हैं और आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने पहले थे। वे सत्य, अहिंसा, करुणा, अपरिग्रह और धर्म जैसे सार्वभौमिक मूल्यों का पालन करने की प्रेरणा देते हैं। भले ही रूप बदल सकते हैं, लेकिन उनका सार और महत्व स्थायी रहता है।
आधुनिक जीवन में संस्कारों को कैसे अपनाया जा सकता है?
संस्कारों को सभी के जीवन का एक सार्थक हिस्सा बनाने के लिए उन्हें समकालीन समय के अनुसार अनुकूलित किया जा सकता है। इसमें सरल दृष्टिकोण अपनाना, परिवार और समुदाय को शामिल करना, और आधुनिक संदर्भों का उपयोग करना शामिल है।
क्या सभी संस्कारों का पालन करना आवश्यक है?
संस्कार व्यक्तिगत पसंद और परिस्थितियों के अनुसार चुने जा सकते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि संस्कारों के पीछे के उद्देश्य को समझा जाए और उसे अपने जीवन में अपनाया जाए।
क्या मैं संस्कारों के बारे में और अधिक जान सकता हूं?
निश्चित रूप से! आप धार्मिक ग्रंथों, विद्वानों से परामर्श, या ऑनलाइन संसाधनों का उपयोग करके संस्कारों के बारे में अधिक जान सकते हैं। इसके अलावा, संस्कारों का अनुभव करने का सबसे अच्छा तरीका उनमें भाग लेना है।
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