प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण सत्, रज और तम- ये तीनों गुण प्रकृति-विभाग में ही हैं। परन्तु प्रकृति के कार्य शरीर से अपना सम्बन्ध ('मैं' और 'मेरा') मान लेने के कारण ये गुण अविनाशी चेतन को नाशवान् जड़ शरीर में बाँध देते हैं अर्थात् मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा है- ऐसा देहभिमान पेदा कर देते है। अर्थात सभी विकार प्रकृति के सम्बन्ध से पैदा होते है। मात्र स्वरूप में कोई भी विकार नहीं है-
'असंगो ह्ययं पुरुषः' (बृ०आ०उ0 4/3/15)
'देहेऽस्मिन्पुरुषः परः' (गीता-13/12)।
विकार के कारण ही जन्म-मरण होता है।
वास्तव में गुण जीव को नहीं बाँधते, बल्कि जीव ही उनका संग करके बँध जाता है (गीता 14/21)। अगर गुण बाँधने वाले होते तो गुणों के रहते हुए कोई उनसे छूट सकता ही नहीं, जीवन मुक्ति हो ही नहीं सकती।
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ।।
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ।।
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ।। (गीता-14/6,7,8)
सतोगुण, रजोगुण तमोगुण का अर्थ
• सतोगुण क्या होता है ?
1. सतोगुण :- उन तीनों गुणों में सतोगुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सतोवगुण सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से देह को बाँधता है।
2. रजोगुण :- यह रजोगुण रागस्वरूप है जो तृष्णा और आसक्ति पैदा करने वाला है। यह कर्मों की आसक्ति से देही अर्थात् जीवात्मा को बाँधता है।
3. तमोगुण :- अज्ञान से उत्पन्न होने वाला यह तमोगुण, देहधारीयों को मोहित करने वाला है। तथा प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा (देह के साथ अपना सम्बन्ध मानने वालों को) बाँधता है।
सतोगुण निर्मल, स्वच्छ होने के कारण प्रकाश करने वाला है। जिसके अन्तर्गत वस्तुएं साफ-साफ दिखती हैं, ऐसे ही सतोगुण की अधिकता होने से रजोगुण और तमोगुण की वृत्तियाँ साफ-साफ दिखती हैं। रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोष भी साफ-साफ दीखते हैं अर्थात् इन सब विकारों का साफ-साफ ज्ञान होता है।
सतोगुण के दो रूप है-
1. शुद्ध सत्त्व, जिसमें उद्देश्य परमात्मा का होता है और
2. मलिन सत्त्व, जिसमें उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह का होता है।
शुद्ध सत्त्व में परमात्मा का उद्देश्य होने से परमात्मा की तरफ चलने में स्वाभाविक रूचि होती है। मलिन सत्त्व में पदार्थों के संग्रह और सुखभोग का उद्देश्य होने से संसारिक प्रवृत्तियों में रूचि होती है, जिससे मनुष्य बन्ध जाता है।
यहाँ भगवान् ने सतोगुण को अनामय (निर्विकार) बताया है, यह सतोगुण की विलक्षणता है क्योंकि सतोगुण गुणातीत होने के बहुत नजदीक है। यद्यपि सतोगुण निर्विकार है, पर संग के कारण वह विकारी हो जाता है, क्योंकि संग रजोगुण स्वरूप है (गीता 14/7)। सुख और ज्ञान बाधक नहीं हैं, बल्कि उनका संग बाधक है। संग है उनको अपना मान लेना । वास्तव में सतोगुण अपना है ही नहीं, वह तो प्रकृति का है। मनुष्य में रजोगुण की अधिकता रहती है, अतः संग रहता है, तब तक मुक्ति नहीं होती, क्योंकि स्वरूप असंग है।
रजोगुण कर्मों की आसक्ति से शरीर को बाँधता है अर्थात् रजोगुण के बढ़ने पर ज्यों-ज्यों तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है, त्यों ही त्यों मनुष्यों की कर्म करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। कर्म करने की प्रवृत्ति बढ़ने से मनुष्य नये-नये कर्म करना शुरू कर देता है, फिर वह रात-दिन इस प्रवृत्ति में ही फंसा रहता है अर्थात् मनुष्य की मनोवृत्तियाँ रात-दिन नये-नये कर्म आरम्भ करने के चिन्तन में लगी रहती है। ऐसी अवस्था में उसको अपना कल्याण (उद्धार) करने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार रजोगुण कर्मों की सुखासक्ति से शरीरधारी को बांध देती है. अर्थात् जन्म-मरण में ले जाता है। अतः साधक को प्राप्त परिस्थति के अनुसार निष्काम भाव से कर्त्तव्य-कर्म तो कर देना चाहिये, किन्तु संग्रह और सुखभोग के लिये नये-नये कर्मों का आरम्भ नहीं करना चाहिये।
तमोगुण अज्ञान से अर्थात् बेसमझी से, मूर्खता से पैदा होता है और सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित कर देता है अर्थात् सत्-असत् कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का ज्ञान (विवेक) नहीं होने देता। इतना ही नहीं, यह सांसारिक सुख-भोग और संग्रह में भी नहीं लगने देता अर्थात् राजस सुख में भी नहीं जाने देता फिर सात्त्विक सुख की तो बात ही क्या है।
वास्तव में तमोगुण के द्वारा मोहित होने की बात केवल मनुष्यों के लिये ही है, क्योंकि दूसरे प्राणी तो स्वाभाविक ही तमोगुण से मोहित है। फिर भी यहाँ पर 'सर्वदेहिनाम्' से तात्पर्य ऐसे मनुष्यों से है जिनमें सत्-असत्, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का ज्ञान (विवेक) नहीं है, वे मनुष्य होते हुए भी चौरासी लाख योनियों वाले प्राणियों के ही समान हैं, अर्थात् जैसे पशु-पक्षी आदि प्राणी खा-पी कर सो जाते हैं, ऐसे ही वे मनुष्य भी है। यह तमोगुण प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा सम्पूर्ण देहधारियों को बांध देता है।
सत्, रज, और तम ये तीनों गुण मनुष्य को बाँधते हैं, पर इन तीनों के बांधने के प्रकार में अन्तर है। सत्त्वगुण और रजोगुण 'संग' से बाँधते है अर्थात् सत्त्वगुण सुख और ज्ञान की आसक्ति से तथा रजोगुण कर्मों की आसक्ति से बाँधत है। अतः सत्त्वगुण में 'सुख संग और ज्ञानसंग' तथा रजोगुण में कर्मसंग बताया है। परन्तु तमोगुण में 'संग' नहीं बताया, क्योंकि तमोगुण मोहनात्मक है। इसमें किसी का संग करने की जरूरत नहीं पड़ती। यह तो स्वरूप से ही बाँधने वाला है। अर्थात् सत्त्वगुण और रजोगुण तो संग (सुखासक्ति) से बाँधते है, किन्तु तमोगुण स्वरूप से ही बाँधने वाला होता है।
अगर सुख की आसक्ति न हो और ज्ञान का अभिमान न हो तो सुख और ज्ञान बाँधने वाले नहीं होते, बल्कि गुणातीत करने वाले होते है। ऐसे ही कर्म और कर्मफल में आसक्ति न हो, तो वह कर्म परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला होता है (गीता 3/19)।
उपयुक्त तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं और जीव स्वयं प्रकृति और उसके कार्य गुणों से सर्वथा रहित है। गुणों के साथ सम्बन्ध जोड़ने के कारण ही वह स्वयं निर्लिप्त, गुणातीत होता हुआ भी गुणों के द्वारा बन्ध जाता है। अतः अपने वास्तविक स्वरूप का लक्ष्य रखने से ही साधक गुणों के बन्ध से छूट सकता है।
तीनों गुणों के लक्षण :- जब जिस समय जो गुण बढ़ता है, तब उसकी मुख्यता हो जाती है और दूसरे गुणों की गौणता हो जाती है, यह गुणों का स्वभाव है। इसी के आधार पर आगे तीनों गुणों के लक्षण बताये गये हैं।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ।।
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ।।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ।। (गीता-14/11,12,13)
सत्त्वगुण की वृद्धि होने पर शरीर में हलकापन तथा इन्द्रिय और अन्तःकरण में निर्मलता और चेतना की अधिकता हो जाना ही प्रकाश उत्पन्न होना है। सत्य-असत्य तथा कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का निर्णय करने वाली विवेक शक्ति का जाग्रत हो जाना 'ज्ञान' का उत्पन्न होना है। जिस समय प्रकाश और ज्ञान इन दोनों का प्रादुर्भाव होता है, उस समय अपने आप ही संसार में वैराग्य होकर मन में उपरति और सुख-शान्ति छा जाती है, तथा राग-द्वेष, दुःख-शोक, चिन्ता, भय, चंचलता, निद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि का अभाव हो जाता है।
रजोगुण के बढ़ जाने पर जब मनुष्य के अन्तःकरण में सत्त्वगुण के कार्य प्रकाश, विवेकशक्ति और शान्ति आदि एवं तमोगुण के कार्य निद्रा और आलस्य आदि दोनों ही प्रकार के भाव दब जाते हैं, तब उसे नाना प्रकार के भोगों की आवश्यकता प्रतीत होने लगती है, उसके अन्तःकरण में लोभ बढ़ जाता है, धन संग्रह की विशेष इच्छा उत्पन्न हो जाती है, नाना प्रकार के कर्म करने के लिये मन में नये-नये भाव उठने लगते है, मन चंचल हो जाता है इस प्रकार रजोगुण की वृद्धि के समय इन लोभ आदि भावों का प्रादुर्भाव होना ही रजोगुण की वृद्धि के लक्षण है।
जिस समय तमोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य के इन्द्रिय और अन्तःकरण में दिप्ति का अभाव हो जाता है, यही 'अप्रकाश' का उत्पन्न होना है। कोई भी कर्म अच्छा नहीं लगता, केवल पड़े रहकर ही समय बिताने की इच्छा होती है, यह 'अप्रवृत्ति' का उत्पन्न होना है। शरीर और इन्द्रियों द्वारा व्यर्थ चेष्टा करते रहना और कर्त्तव्यकर्म की अवहेलना करना, यह 'प्रमाद' का उत्पन्न होना है। मन का मोहित हो जाना, किसी बात की स्मृति न रहना, तन्द्रा, स्वप्न या सुषुप्ति अवस्था का प्राप्त हो जाना, विवेकशक्ति का अभाव हो जाना, किसी विषय को समझने की शक्ति का न रहना, यही सब 'मोह' का उत्पन्न होना है। ये सब लक्षण तमोगुण की वृद्धि के समय उत्पन्न होते हैं।
तीनों गुणों की वृद्धि के भिन्न-भिन्न लक्षण बतलाने के पश्चात अब आगे श्लोक गीता 14, 15 में उन गुणों में से किस गुण की वृद्धि के समय मरकर मनुष्य किस गति को प्राप्त होता है, इस विषय में बतलाते है-
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तू प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ।।
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसन्निषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ।। (गीता-14/14,15)
सत्त्वगुण की वृद्धि में मरने वालों को जिन लोकों की प्राप्ति होती है उन लोकों में मल अर्थात् किसी प्रकार का दोष या क्लेश (दुःख) नहीं होता, वे दिव्य प्रकाशमय, शुद्ध और सात्त्विक हैं। शास्त्रविहित कर्म और उपासना को निष्काम भाव से करने वाले मनुष्य 'उत्तमवित्' कहलाते हैं। वे उक्त कर्मोपासना के प्रभाव से जिन लोकों को प्राप्त करते हैं, सत्त्वगुण की वृद्धि में मरने वाले भी उन्हीं लोकों को प्राप्त कर लेते हैं।
जिस समय रजोगुण बढ़ा हुआ होता है अर्थात् 12वें श्लोक के अनुसार लोभ, प्रवृत्ति आदि राजसी भाव बढ़े हुए होते हैं, उस समय जो स्थूल शरीर से मन, इन्द्रिय और प्राणों के सहित जीवात्मा का सम्बन्ध विच्छेद हो जाना है, वही रजोगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होना है। कर्म और उनके फलों में जिसकी आसक्ति है, उन मनुष्यों को कर्मसंगी कहते है, इसलिये मनुष्य योनि को प्राप्त होना ही कर्मसंगियों में जन्म लेना है।
जब तमोगुण बढ़ा हुआ होता है अर्थात् 13वें श्लोक के अनुसार 'अप्रकाश' 'अप्रवृत्ति' और 'प्रमाद' आदि तामस भाव बढ़े हुए हों, उस समय जो स्थूल शरीर से मन, इन्द्रिय और प्राणों के सहित जीवात्मा का सम्बन्ध विच्छेद हो जाना है, वही तमोगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होना है, और कीट-पतंग, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि जो तामसी योनियाँ हैं, उनमें जन्म लेना ही मूढ़ योनियों में उत्पन्न होना है।
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FAQ
प्रकृति के गुणों का अर्थ क्या है?
सत, रज, और तम - ये तीनों गुण प्रकृति-विभाग में हैं। सतोगुण निर्मल, रजोगुण रागस्वरूप, और तमोगुण अज्ञान से होता है।
गुणों का जीव पर क्या प्रभाव होता है?
गुण नहीं, जीव ही गुणों के संग से बँध जाता है। सतोगुण से सुख की आसक्ति, रजोगुण से कर्म की आसक्ति, और तमोगुण से अज्ञान की बढ़ती है।
क्या गुणों का व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रभाव होता है?
नहीं, गुण व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रभाव नहीं डालते। गुण से जन्म-मरण होता है, लेकिन विवेकी जीव गुणों से अलग रहकर मुक्त हो सकता है।
क्या सत्त्व, रज और तम का अर्थ क्या है?
सत्त्व निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम् है, रजोगुण रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् है, और तमोगुण अज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् है।
सत्त्वगुण की विशेषताएं क्या हैं?
सत्त्वगुण निर्विकार होता है और परमात्मा की ओर ले जाता है। शुद्ध सत्त्व में परमात्मा का उद्देश्य होता है, जबकि मलिन सत्त्व में संसारिक भोग की रुचि होती है।
गुणों का व्यक्ति पर प्रभाव कैसे बढ़ता है?
गुण व्यक्ति की भावनाओं और क्रियाओं को निर्धारित करते हैं, जो उसके कर्मों को प्रेरित करते हैं और उसका भविष्य निर्माण करते हैं।
क्या गुण बदले जा सकते हैं?
हाँ, गुण बदले जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए ज्ञान और आत्मविवेक की आवश्यकता होती है। उच्चतम गुण का अनुभव साधक को मोक्ष की दिशा में ले जाता है।
गुणों के अनुसार जीवन कैसे व्यवहार करना चाहिए?
उच्चतम गुणों को अपनाकर, ज्ञान और प्रेम के साथ जीवन जीना चाहिए। गुणों से अलग होकर सत्य, अहिंसा, और शांति को अपनाना चाहिए।
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