ग्रहण का वैज्ञानिक स्वरूप
1. ग्रहण
का स्वरूप- सामान्यतः सूर्य-चन्द्र ग्रहण से तात्पर्य है कि जब उदय
सूर्य अथवा चन्द्रमा बिम्ब का कतिपय अंश ग्रस्त हो जाय। प्राचीन ग्रन्थों में
ग्रहण लगने का मुख्य कारण राहु और केतु माने जाते रहे हैं। ऋग्वेद संहिता के पंचम
मण्डलांतर्गत 40वें सूत्र में सूर्य और चन्द्र ग्रहण का वर्णन उपलब्ध है।
अक्रन्दद्दर्वीषाण्यपश्यञ्ज्योतिरपहृतम् ।
सूर्यस्य त्वचं कृष्णामग्निरिव
व्युषावयत् ।।1 ऋग्वेद 5.40.5
सूर्य के तेज को छीन लिया गया है, इसलिए अंधकार छा गया है। सूर्य का चेहरा काला पड़ गया है, मानो अग्नि ने उसे जला दिया हो।
इन स्थानों पर ग्रहणों का कारण राहु
नामक दैत्य नहीं है अपितु चन्द्र ग्रहण का कारण भूछाया और सूर्य ग्रहण का कारण
चन्द्रमा है। इस रहस्य का उद्घाटन आचार्य वाराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ में किया है-
सूर्यात्
सप्तमराशौ यदि चोद्ग्दक्षिणेन नातिगतः।
चन्द्रः
पूर्वाभिमुखरछायामौवीं तद विशति।।2 बृहत्संहिता 5/10
यह तथ्य ज्योतिष संहिताओं में वर्णित
सिद्धान्तों का खंडन करता है। ब्रह्मगुप्त ने ‘श्रुति स्मृति’ में संहिता ग्रन्थों और सिद्धान्त ग्रन्थों में एक रूपता प्रदर्शित करते हुए
लिखा है कि राहु चन्द्र ग्रहण के समय भूछाया में और सूर्य ग्रहण के समय चन्द्रमा
में प्रवेश करके चन्द्रामा और सूर्य को आच्छादित करता है। भास्कराचार्य ने भी इसी
प्रकार का मन्तव्य प्रकट किया है।
छादकः
पृथुतरस्ततो विधोरर्घ खण्डित तनोर्विषाणयोः।
कुण्ठता
च महती स्थितियतो लक्ष्यते हरिणलक्षणग्रहे।।3 सि॰शि॰ ग्रहणवासना 7
1. ग्रहण का पौराणिक पक्ष-
पौराणिक मान्यता है कि जिस समय विष्णु मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों को अमृत
बांट रहे थे,
राहु नामक असुर देव वेश में देवताओं की पंक्ति में अमृत
पीने के लिए बैठ गया। उसने अमृत पान तो कर लिया किन्तु सूर्य और चन्द्रमा ने उसे
प्रच्छन्न रूप को समझ लिया और विष्णु को संकेत कर दिया कि वह छद्म वेशधारी असुर
है।
इसके इस कृत्य से खिन्न विष्णु ने अपने
सुदर्शन से उसका सिर काट दिया। अमृत पान होने पर वह मरा नहीं, उसके सिर को राहु तथा धड़ को केतु कहा गया। उसकी यह दशा सूर्य और चन्द्रमा के
कारण हुई। अतः वे दोनों ही राहु के शत्रु हो गए। राहु जब भी समय पाता है, उनको ग्रस लेता है किन्तु राहु का सिर धड़ से अलग होने के कारण सूर्य और
चन्द्रमा उसकी गर्दन से बाहर आ जाते हैं।
विष्णुचक्रोत्कृतशिराः
पङ्गु पीयूषपानतः।
अमृत्युतां
गतस्तत्र खेटत्त्वे परिकल्पितः।।
वरणधातुरकेन्दू
तुव्ते सर्वपर्वाणि। विक्षेपावनतेर्वगाद्रीर्दूरगतस्तयोः।।
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के
पैतीसवें सर्ग में हनुमान के बाल रूप की कथा प्रस्तुत हुई है। बाल्यावस्था में
हनुमान उदय होते हुए सूर्य को फल समझकर सूर्य की ओर उछले जिस दिन हनुमान जी
सूर्यदेव की और उसे पकड़ने के लिए उछले थे उसी दिन राहु सूर्यदेव पर ग्रहण लगाना
चाहता था।
यमेव दिवसं हेष गृहीतुं भास्करं
प्लुतः।
तमेव दिवसं राहुजिघृक्षति दिवाकरम्।।
हनुमान जी ने सूर्य के रथ के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तब चन्द्रमा
और सूर्य का मर्दन करने वाला राहु भयभीत होकर वहां से भाग पड़ा।
अनेन च परामृष्टो राहुः सूर्य
रथोपति।
अपक्रान्तस्ततस्त्रस्तो राहुश्चन्द्रार्क
मर्दन।।
सिंहिका का व पुत्र रोष भरकर इन्द्र के भवन में गया और देवताओं के घिरे हुए
इन्द्र के सामने भौंहे टेढ़ी करके बोला बल और वृत्रासुर का वध करने वाले दानव अपने
चन्द्रमा और सूर्य को अपनी भूख दूर करने के साधन के रूप दिया था किन्तु अब आपने
उन्हें दूसरे के हवाले कर दिया है ऐसा क्यों हुआ आज (अमावस्या पर्व के समय मैं
सूर्यदेव को ग्रस्त करने की इच्छा से गया था इतने में ही दूसरे राहु आकर सहसा
सूर्य को पकड़ लिया है।
इन्द्रस्य
भवनंगत्वा सरोषः सिंहिकासुतः।
अब्रर्वाद्
भृकुटि कृत्वा देवं देवगणैर्वृतम्।
बुभुक्षापनयं
दत्या चान्द्रार्कौ मम वासव।
अघाहं
पर्वकाले तु जिघक्षुः सूर्यमागतः।।
अथान्यो
राहुरासाघ जग्राह सहसा इविम्।।
इसी प्रकार बृहत संहिता में अच्युतानन्द इन अनेक आचार्यो के मत सूर्यादि ग्रहण
के सन्दर्भ में प्रस्तुत किये हैं। यद्यपि आज भी अधिकांश लोग सूर्यादि ग्रहण में
राहु के कारण मानते है तथापित ग्रहण सम्बन्धी यह पौराणिक मान्यता तर्क एवं
वैज्ञानिक कसौटी पर खरा नहीं उतरता। सूर्य-चन्द्रादि ग्रहण का जो वैज्ञानिक आधार
है उसका वर्णन भी अपेक्षित है।
ग्रहण का वैज्ञानिक पक्ष-
ग्रहण के वैज्ञानिक पक्ष का मूल वेदादि शास्त्रों में उपलब्ध है। भले ही वह
विकसित सिद्धान्त के रूप में नहीं है। उनमें ग्रहण का कारण न तो राहु आदि असुर
दिखा है और ना ही उस समय दान एवं श्रद्धाादि कुछ कर्तव्य ही लिखे हैं।
सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के वैज्ञानिक
महत्व को समझने के लिए हमें ब्रह्मांड की संरचना और गतिशीलता को समझने का मौका
मिलता है। इन घटनाओं का अध्ययन नए तांत्रिक और वैज्ञानिक अध्ययनों को आगे बढ़ाता
है और हमें सौरमंडल की अधिक गहराई में जाने का अवसर देता है। इसके अलावा, यह ग्रहण
भौतिक विज्ञान में नई जानकारी प्रदान करता है, जैसे कि
तापमान, अक्षमांश, और अन्य गुणों में
परिवर्तन, जो हमें विशेषज्ञता और नए तकनीकी अविष्कारों की
दिशा में मदद करता है। इसके साथ ही, ये ग्रहण विभिन्न
सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं में भी विशेष महत्व रखते हैं, जो लोगों के जीवन में धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के रूप में दिखाई देते
हैं।३. वैज्ञानिकों के मुताबिक, ग्रहण के दौरान दुष्प्रभावी
गामी किरणें ज़्यादा मात्रा में निकलती हैं. इससे जीवों के स्वास्थ्य और मन पर
बुरा असर पड़ता है. ग्रहण के दौरान मानसिक संतुलन बिगड़ने और रक्तचाप बढ़ने की
आशंका रहती हैं।
सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण का
वैज्ञानिक महत्व विभिन्न तांत्रिक और वैज्ञानिक अध्ययनों के लिए महत्वपूर्ण है। यह
घटनाएं ब्रह्मांड के गतिशीलता और नियमों को समझने में मदद करती हैं। इन ग्रहणों का
अध्ययन हमें सौरमंडल के अनुसंधान में महत्वपूर्ण डेटा प्रदान करता है, जिससे हम ब्रह्मांड की संरचना और गतिशीलता को और अधिक समझ सकते हैं।
सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के दौरान ब्रह्मांडीय शरीरों के बीच जो तापमान, अक्षमांश, और इलेक्ट्रॉनिक कन्फ़िगरेशन की
परिवर्तनात्मक प्रक्रियाएं होती हैं, उनका अध्ययन हमें भौतिक
विज्ञान में नई जानकारी प्राप्त करने में मदद करता है। इसके अलावा, ये ग्रहण आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में भी महत्वपूर्ण स्थान
रखते हैं, और लोग इनका महत्व समझकर उन्हें उत्सव और
अनुष्ठानों के रूप में मानते हैं।
यत्वासूर्य
स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः।
अक्षेत्रविद्यथा
मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ।।4 ऋग्वेद सं॰ 5/4/59
हे सूर्य चन्द्रमा जो तुम्हें
अन्धकार से घेर लिया है इससे सब लोग अपने-अपने स्थान न जाकर मोहित हो रहे हैं लोक
में तेरा प्रकाश है उसको चन्द्रमा ने आच्छादित होकर अन्धकार से तेरे रूप को एक
मात्र छिपा दिया है इस बात को पूर्ण विचार करने पर ज्ञान द्वारा जाना जाता है। हे
सूर्य तेरा नाम मित्र एवं वरण अनेक स्थानों में लिखा गया है, ऐसे अनेक विशेषण होने पर भी ईश्वरीय नियम से बह्य तुमको अन्धकार निगल गया।
मानो ब्रह्मा ने मेघ की तरह तुम्हारे लिए
चन्द्रमा को आच्छादित नियुक्त किया है। उत्मीषण काल में द्युलोक में पुनः प्रकाश
होने लगा जिस सूर्य को चन्द्रमा ने आच्छादित कर दिया था, उसे केवल ज्ञानी लोग ही जानते है दूसरे नहीं। यहाँ पर सूर्य ग्रहण और चन्द्र
ग्रहण का वैज्ञानिक स्वरूप प्राप्त होता है, यहां सर्वग्रास ग्रहण की
ओर भी संकेत किया है। अथर्ववेद संहिता में भी ग्रहण का वैज्ञानिक स्वरूप प्राप्त
होता है-
उच्चा
पतन्तमरुणं सुपर्णं मध्ये दिवस्तरणिं भ्राजमानम्।
पश्याम
त्वा सवितारं यमाहुरजस्रं ज्योतिर्यदविन्ददत्त्रिः॥5 अथर्ववेद सं॰ 13/2/36
शतपथ ब्राह्मण में भी इसका स्वरूप
प्राप्त होता है-
स्वभानुर्हवाआसुरः। सूर्य तमसा विव्याध स
तमसा विद्वो न व्यरोचत तस्य
सोमारुद्रावेवैतत्तमोऽपाहतां स एषोऽपहतपात्मा तपति।।6 शतपथ ब्राह्मण 5/3/2/2
गोपथ ब्राह्मण में भी सूर्यग्रहण के
विषय में इस प्रकार का उल्लेख किया गया है-
स्वर्भानुवा आसुरः सूर्य तमसा
विध्यत्तदत्रिरपनुनोद तदत्रिरन्चपश्यत्।7 गोपथ ब्राह्मण 30/9/19
ताण्डय ब्राह्मण में भी अनेक स्थानों
पर ग्रहण का उल्लेख हुआ है।
स्वर्भानुर्वा आसुर आदित्यं
तमसाऽविध्यत्तं देवाः
स्वरैरस्पृण्वन् यत् स्वरसामानो
भवन्त्यादित्यस्य स्पृत्यै तां।8
ताण्ड्य ब्रा॰ 4/5/2
स्वर्भानुर्वा आसुर आदित्यन्मसा
विध्यत्तं देवा न
व्यज्ञानंस्तेऽत्रिमुपाधावंस्त स्यात्रिर्भासेन
तमापाहन्यत्।।9 ताण्डय ब्रा॰ 6/6/8
प्रथमम पाहान् सा कृष्णाविर भवद्यद्
द्वितीयं सा रजसा।
या तृतीयां सा लोहिती यया
वर्णमभ्यतृणत्सा शुक्लासीत्।।10
अश्वलायल संहिता 4
चन्द्रग्रहण में चन्द्रबिम्ब का आधे से अल्प ग्रास होने पर ग्रस्तभाग
धूम्रवर्ण का, अर्धाधिक ग्रस्त होने पर प्रस्तभाग
कृष्णवर्ण का, मोक्षाभिमुख अर्थात् पादोनबिम्ब से अधिक ग्रास
होने पर कृष्णताम्रवर्ण तथा सम्पूर्ण ग्रहण होने पर कपिलवर्ण ;हल्का
पीत वर्णद्ध होता है । सूर्यग्रहण में सूर्य का ग्रास सदैव कृष्णवर्ण ही होता है।
अर्धादूनेसधूम्रस्या
त्कृष्णमर्धाधिकं भवेत्।
विमुच्यतः
कृष्ण ताम्रं कपिलं सकलग्रहे।।11 सूर्य सिद्धान्त 6/23
इसमें ग्रहण के रंग का भी वर्णन है, कृष्ण, चांदी का रंग, लाल
वर्ण और शुक्ल ये चार प्रकार के रंग माने गये हैं। इन रंगों का विशद् विवेचन सूर्य
सिद्धान्त के ग्रहणाध्याय में प्राप्त होता है। जो वेदमूलक है। इसी प्रकार का
वर्णन ग्रहलाघव में उपलब्ध होता है।
ऋग्वेद में ग्रहण के विषय में
संक्षिप्त उल्लेख प्राप्त होता है।
यं वै
सूर्यं स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः।
अत्र
यस्तमन्वविन्दन्नद्वन्ये अशुक्तुवन्।।12 ऋग्वेद 5.40.5
ग्रहण के विषय में वैदिक काल से ही विवेचन प्राप्त होता है, उसमें कहीं भी ग्रहण विषयक तथ्य प्रतिपादित नहीं किये गये।
आचार्य वराहमिहिर ने ग्रहण के विषय
में जहाँ पौराणिक मत की चर्चा की है वहीं उन्होंने पौराणिक मत को अप्रमाणिक कहते
हुए वैज्ञानिक मत का प्रतिपादन किया है। स्पष्ट रूप से यह भी कहा कि ग्रहण का कारण
राहु नहीं हो सकता। उन्होंने ग्रहण के विषय में अत्यन्त वैज्ञानिक स्वरूप दिया है
जो अद्यतन सर्वमान्य है-
भूच्छायां स्वग्रहणे भास्करमर्कग्रहे प्रविशतिन्दुः।
प्रग्रहणमतः
पश्च्चान्नेन्दोर्भानोश्च पूर्वार्द्धात् ॥13 बृ॰सं॰ राहुचारध्याय 8
अर्थात् अपने ग्रहण में चन्द्रमा
भूच्छाया में और सूर्यग्रहण में सूर्यबिम्ब में प्रविष्ट होता है, अतरू चन्द्र का स्पर्श पश्चिम भाग से और सूर्य का स्पर्श पूर्व भाग से
नहीं होता।
आर्यभट्ट-ग्रहण के विषय में आर्यभट्ट
ने भी अपना मत प्रतिपादित किया है, जो इस प्रकार है-
चंद्रोजलमर्कोग्निर्मृद्
भूच्छायानि या तमस्तद्धि।
छादयति
शशी सूर्यं शशिनं महती च भूच्छाया॥14 आर्यभटीयम् गोलपाद 37
अर्थात् जलमय चन्द्रमा अग्निस्वरूप सूर्य को ग्रहण काल में ढक लेता है और
मृतिकामय पृथ्वी की बड़ी छाया चन्द्रग्रहण काल में चन्द्रमा को ढक लेती है।
भास्कराचार्य ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा है- जब चन्द्रमा पूर्व की ओर
जाते समय भूमि की छाया में प्रवेश करता है, तब चन्द्र ग्रहण पड़ता है और तब छाया से निकल जाता है उसका उग्रह होता है।
पूर्वाभिमुखो गच्छन् कुच्छायान्र्यतः शशीविशति।
तेन
प्राक प्रग्रहणं पश्चान्मोक्षोऽस्य निस्तरतः।।14
सि॰शि॰ गोलाध्याय ग्रहणवासना 4
ग्रहण विषयक अध्ययनोपरन्त निष्कर्ष
यह निकलता है कि वैज्ञानिक मत ही सर्वग्राह्य है, इस
तथ्य को अन्य प्रकार से भी प्रस्तुत कर सकते हैं।
चन्द्र ग्रहण-
सूर्य ग्रहण अमावस्या को और चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा को लगता है। इसका कारण यह
है कि चन्द्रमा अमावस्या को सूर्य और पृथ्वी के मध्य स्थान में प्रवेश करता है और
पृथ्वी पूर्णिमा को चन्द्रमा और सूर्य के मध्यवर्तिनी होती है। पृथ्वी स्वयं
निस्तेज और गोलाकार है। इस कारण इसका जो भाग सूर्य से प्रकाशित होता है, उसके विपरीत भाग में सूच्याकार इस भूच्छाया में जब चन्द्रमा प्रवेश करता है तब
वह क्रमशः मलिन होने लगता है। इसी को चन्द्रगहण कहते हैं। ऐसी घटना केवल पूर्णिमा
को ही संभव होती है। अतः पूर्णिमा को ही चन्द्र ग्रहण हो सकता है।
सूर्य सिद्धान्त के अनुसार ग्रहण -
चन्द्रमण्डल के सूर्य और पृथ्वी के मध्यवर्ती होने से सूर्य किरणें अवरूद्ध हो
जाती हैं,
उसी को सूर्य ग्रहण कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के संगमकाल
में अर्थात् अमावस्या को सूर्य ग्रहण होने की संभावना होती है। यह ग्रहण प्रत्येक
अमावस्या को और चन्द्र ग्रहण प्रत्येक पूर्णिमा को नहीं हो सकता क्योंकि
चन्द्रकक्षा और भूकक्षा समतल नहीं है। यदि चन्द्र कक्षा और भूकक्षा समतल होती तो
निश्चित ही सूर्य ग्रहण प्रत्येक अमावस्या को और चन्द्र ग्रहण प्रत्येक पूर्णिम को
संभव होता,
परन्तु ऐसा नहीं है। इसी सन्दर्र्भ में आचार्य वराहमिहिर ने
अपना मत प्रकट किया है-
सूर्यात् सप्तमराशौ यदि चौदग्दक्षिणेन नातिगतः ।
चन्द्रः
पूर्वाभिमुखश्छायामौर्वीम् तदा विशति ॥15 बृहत्संहिता 5/ 10
अर्थात् जब सूर्य ने सप्तम राशि में स्थित
होकर पूर्व की ओर चलने वाला चन्द्रमा क्रांतिवृत्त से बहुत ही कम उत्तर या दक्षिण
शर की ओर स्थित होता है,
तो उस समय पूर्व की
ओर चलता हुआ चन्द्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है, तब चन्द्र ग्रहण होता है।
इस प्रकार की स्थिति प्रत्येक
पूर्णिमा को नहीं हो सकती। वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि ऐसी स्थिति
वर्ष में केवल दो बार हो सकती है और यह भी संभव है कि एक बार भी वर्ष में ऐसी
स्थिति न आये। इसी तरह एक वर्ष में अधिक से अधिक पाँच सूर्य ग्रहण संभव हो सकते
हैं।
सूर्य-सिद्धान्त में बताया है कि सूर्य से
छह राशि दूरी पर पृथ्वी की छाया स्थित है। चन्द्रपात छाया या सूर्य की राशि में
स्थित हो तो ग्रहण होगा। किंचित न्यूवता या अधिकता से भी ग्रहण होता है-
भानोर्भार्धे महीच्छाया तत्तुल्येऽर्कसमेऽपि वा ।
शशाङ्कपाते
ग्रहणं कियद्भागाधिकोनके ।।16 सूर्य सिद्धान्त 4/6
अमावस्या के अन्तिम काल में सूर्य की
राशि आदि चन्द्रमा तुल्य होती है पूर्णिमा के अन्त में चन्द्रमा और सूर्य छह राशि
अन्तर पर होती है-
तुल्यौ राश्यादिभिः स्याताममावास्यान्तकालिकौ ।
सूर्येन्दू
पौर्णमास्यन्ते भार्धे भागादिभिः समौ ॥17 सूर्य सिद्धान्त 4/7
मेघ के समान चन्द्रमा नीचे आकर सूर्य
को धकेलता है और आगे चलता हुआ चन्द्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश करते तो ग्रहण
होता है-
छादकोभास्करस्येन्दुरघः
स्थोघनवभ्दवेत्।
भूच्छायांप्राडमुखश्चन्दो
विशल्यस्यभवेदसौ।।18 सूर्य सिद्धान्त 4/9
चन्द्रमा का पूर्ण ग्रहण या आंशिक ग्रहण होता है। पृथ्वी से चन्द्रमा जितनी
दूर होता है,
भूच्छाया उसके प्रायः साढे़ तीन गुना अधिक दूर विस्तृत एवं
इस छाया के जिस प्रदेश में चन्द्रमा प्रवेश करता है, उसके
परिसर चन्द्र व्यास के प्रायः तीन गुना चन्द्र बिम्ब जब पूरी तरह से छाया में
प्रविष्ट होता है उस समय पूर्ण ग्रहण होता है और जिस समय एक अंश मात्र छाया में
आच्छन होता है,
उस समय आंशिक ग्रहण होता है।
सूर्य ग्रहण तीन प्रकार का होता है-आंशिक, मध्य, सर्वग्रास। सूर्य और चन्द्रमा का दृश्यमान व्यासार्ध का योगफल जब सूर्य के
केन्द्र से चन्द्रमा के केन्द्र की अपेक्षा कम होता है तब ‘आंशिक
ग्रहण’ संभव होता है। जब सूर्य के दृश्यमान व्यासार्ध घटाने पर यदि वह सूर्य से
केन्द्र से दूरी की अपेक्षा कम हो तो ‘मध्य ग्रास’ होता है। इसी तरह यदि सूर्य का दृश्यमान व्यासार्ध चन्द्रमा के दृश्यमान
व्यासार्ध से घटाने पर यदि वह सूर्य के केन्द्र से दूरी की अपेक्षा न्यून हो तो ‘सर्वग्रास’ ग्रहण होता है।
ग्रहण विषयक उपर्युक्त तीनों सिद्धान्त प्रायः सभी खागोलशास्त्री भी मानते
हैं। सूर्य सिद्धान्त में उक्त ग्रहणों का यही स्वरूप विद्यमान है-
तात्कालिकेन्दुविक्षेपंछायाच्दादकमानयोः।
योगार्धात्प्राज्इययच्छेषंतावच्छन्नंतदुच्यते।।19
सूर्य सिद्धान्त 4/10
ग्रहलाघव में-
छादयत्यर्कमिन्दुर्विधुं
भूमिभा छादकच्छाद्यमानैक्यखण्डं कुरु ।
तच्छरोनं
भवेच्छन्नमेतद्यदा ग्राह्यहीनाव शिष्टं तु खच्छन्नकम् ॥20 ग्रहलाघव चन्द्र ग्रहण 4
गणेश दैवज्ञ के अनुसार सूर्य ग्रहण के समय चन्द्रमा सूर्य को आच्छादित किए
रहता है इसीलिए सूर्य ग्रहण में चन्द्रमा को छादक और सूर्य को छाद्य कहते हैं। चन्द्रग्रहण
के समय भूमा (सूर्य की छाया) चन्द्रमा को आच्छादित कर देती है। अतः चन्द्रग्रहण
में भूमा को छादक और चन्द्रमा को छाद्य कहते हैं।
अर्थात् जिस प्रकार मेघमण्डल सूर्यबिम्ब को
आच्छादित कर देता है,
उसी प्रकार (अमावस्या के अन्त में) सूर्यमण्डल के नीचे
स्थित चन्द्रमा अपनी शीघ्रगति के कारण पश्चिम भाग से आकर सूर्य बिम्ब को ढक देता
है। मानैक्य खण्ड से शर कम होने पर चन्द्रमा मेघ के समय हमारी दृष्टियों में आवरण
बन जाता है। इसीलिए चन्द्रमा को छादक और सूर्य को छाद्य कहा गया है, यह सूर्य ग्रहण की विवेचना है।
चन्द्रग्रहण में भूमि की छाया
विस्तृत होने के कारण चन्द्रकक्ष को पार करके बाहर चली जाती है। वह सूर्य के
विपरीत भाग (षड्भान्तरित) में होता है। अतः पूर्णिमा के दिन षड्भान्तरित चन्द्र
मानैक्य खण्ड से शर के कम होने पर भूमि की छाया से ढक जाता है। इसीलिए चन्द्रग्रहण
में भूमि की छाया का छादकत्व सिद्ध होता है।
नारद पुराण के अनुसार ग्रहण -
वैज्ञानिक मत का अनुसरण करते हुए नारद पुराण में भी संकेतात्मक शैली में
सूर्याचन्द्रादित ग्रहण की चर्चा हुई है। सूर्य ग्रहण में चन्द्रमा की छाया और
चन्द्र ग्रहण में पृथ्वी की छाया जब आच्छादित करती है तो क्रमशः सूर्य और चन्द्र
होते है। सूर्य ग्रहण में सूर्य छाद्य और चन्द्रमा छादक होता है। चन्द्रग्रहण में
चन्द्र छाद्य और पृथ्वी छादक होती है।
इस प्रकार नारद पुराण की छादक रीति ग्रहण के सन्दर्भ में अन्य पौराणिक
मान्यताओं का विरोध करती है, इसकी पुष्टि अन्य सिद्धान्त ग्रन्थों
से होती है।
छाद्य और छादक के सन्दर्भ में सूर्यग्रहण
से सम्बन्धित एक शंका यह उत्पन्न होती है कि सूर्य के नीचे बुध, उसके बाद शुक्र तथा उसके बाद चन्द्रमा की स्थिति है। तब बुध और शुक्र की छाया
सूर्य पर क्यों नहीं पड़ती,
जिससे सूर्य ग्रहण संभव हो? केवल
चन्द्रमा की छाया ही क्यों पड़ती है जबकि वह सबसे नीचे है? इसका एक मात्र कारण यही है कि बुध और शुक्र के मण्डल चन्द्रमा की अपेक्षा
अत्यन्त छोटे हैं। इसमें ये सूर्य को नहीं ढक पाते। इस कारण इन बुध और शुक्र के
माध्यम से सूर्य ग्रहण नहीं हो पाता, यह केवल चन्द्र छाया से ही
सम्भव है।
स्पर्श मोक्ष सम्मीलन ग्रहण काल-
पूर्णिमा तिथि की अन्तिम घड़ियां ग्रहण का मध्य काल होती हैं। मध्य काल की इन
घड़ियों को दो स्थानों पर लिखें। एक स्थान पर स्पर्श स्थिति काल को घटा दें। जो शेष
रहे वह स्पर्शकाल होता है। दूसर स्थान पर लिखते हुए मध्यकाल में मोक्षकाल जोड़ दें।
जो योगफल हो वह मोक्ष काल होता है और जो मोक्षकाल में से स्पर्शकाल घटा दें तो वह
पूर्वकाल होता है। सूर्य सिद्धान्त में बताया गया है कि स्पष्ट तिथि के शेष में
मध्य ग्रहण होता हैं। उसके सूक्ष्म स्थित्यर्ध दण्ड वियोग करने पर ग्रास (स्पर्श)
काल होता है और योग करने पर मोक्ष काल होता है।
स्फुटतिथ्यवसाने
तु मध्यग्रहणमादिशेत् ।
स्थित्यर्धनाडिकाहीने
स्पर्शो मोक्षस्तु संयुते ।।21 सूर्य सिद्धान्त 4/16
स्पष्टतिथ्यन्तकाल में मध्यग्रहण होता है । स्पष्ट तिथ्यन्तकाल में
स्पर्शस्थित्यर्धघटिका घटाने से स्पर्श काल तथा मोक्षस्थित्यर्ध घटिका जोड़ने से
मोक्षकाल होता है ।
पूर्णिमा और अमावस्य पर क्यों नहीं होता ग्रहण
आपको यहाँ पर भी बतादे कि चन्द्रमा
की कक्षा का तल पृथ्वी की कक्षा के तल से झुका हुआ है। इसलिए हर पूर्णिमा और
अमावस्था के ग्रहण नहीं होता। ये बेहद दिलचस्प है कि एक वर्ष के अंदर 4 .7 बार ही ग्रहण लग सकता है। आपको ये जानकर हैरानी हो सकती है। कि 7
बार ग्रहण 1901 मे पड़े थे। और अब थे 2100 मे ही पडेंगे इसके अलावा
अब 2038 मे 4 बार चंद्र ग्रहण और तीन बार सूर्य ग्रहण पड़ेगा इसके अलावा 2094 में चार बार सूर्य ग्रहण और तीन बार चंद्र ग्रहण होगा।
चंद्रमा को पृथ्वी का एक
चक्कर लगाने में 27 दिन लगते हैं। कई बार चक्कर लगाने में ऐसी स्थिति बन जाती है। कि पृथ्वी, सूर्य और चन्द्रमा के बीच आ जाती है और जिस वजह से सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा तक नही पहुंच पाता और पृथ्वी
की छाया चंन्द्रमा पर पड़ती है। इस घटना को चन्द्रग्रहण कहा जाता है।
चन्द्र ग्रहण हो या सूर्य ग्रहण
विज्ञान की नजरों में से एक खगोलीय घटना है। चंन्द्र ग्रहण की ही बात करें तो ये
घटना उस वक्त घटती है। जब चन्द्रमा पृथ्वी के ठीक पीछे होता है। और उसकी छाया धरती
पर पड़ती है। इस दौरान सूरज पृथ्वी और चाँद एक ही क्रम में होते है। चन्द्रमा के इस
रूप को प्लड मून भी कहा जाता है। ग्रहण की शुरुआत होने के बाद से पहले काला और फिर
सुर्ख लाल रंग में दिखाई देने लगता है।
सूर्य और राहु में जो अन्तर आता है उनके भुजांश 14 अंश में कम होने पर ही ग्रहण होता है नहीं तो ग्रहण नहीं होता यह पूर्णतः
वैज्ञानिक है। अतः ग्रहण स्वरूप पूर्णतयाः वैज्ञानिक है।
सन्दर्भ सूची
1.
बृहत्संहिता
5/10
2.
सि॰शि॰
ग्रहणवासना 7
3.
ऋग्वेद
सं॰ 5/4/59
4.
अथर्ववेद
सं॰ 13/2/36
5.
शतपथ
ब्राह्मण 5/3/2/2
6.
गोपथ
ब्राह्मण 30/9/19
7.
ताण्ड्य
ब्रा॰ 4/5/2
8.
ताण्डय
ब्रा॰ 6/6/8
9.
अश्वलायल
संहिता 4
10.
सूर्य
सिद्धान्त 6/23
11.
ऋग्वेद 5.40.5
12.
बृ॰सं॰
राहुचारध्याय 8
13.
आर्यभटीयम्
गोलपाद 37
14.
सि॰शि॰
गोलाध्याय ग्रहणवासना 4
15.
बृहत्संहिता
5/ 10
16.
सूर्य
सिद्धान्त 4/6
17.
सूर्य
सिद्धान्त 4/7
18.
सूर्य
सिद्धान्त 4/9
19.
सूर्य
सिद्धान्त 4/10
20.
ग्रहलाघव
चन्द्र ग्रहण 4
21.
सूर्य
सिद्धान्त 4/16
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FAQ
सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण क्या है?
सूर्य ग्रहण एक प्रकार की घटना है जब चंद्रमा सूर्य के सामने आकर उसकी रोशनी को पूर्णतः ब्लॉक कर देता है। इसी तरह, चंद्र ग्रहण एक प्रकार की घटना है जब चंद्रमा भूमि के बीच स्थित होता है और उसकी रोशनी को पूर्णतः ब्लॉक कर देता है।
सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण कैसे होते हैं?
सूर्य ग्रहण तब होता है जब चंद्रमा सूर्य के बीच में आ जाता है और उसकी रोशनी को पूर्णतः ब्लॉक कर देता है। यह धरती से देखा जाता है। चंद्र ग्रहण तब होता है जब चंद्रमा भूमि के बीच में आ जाता है और उसकी रोशनी को पूर्णतः ब्लॉक कर देता है। यह देखा जाता है कि किसी भी देश के कुछ हिस्सों में।
सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण कितनी बार होते हैं?
सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण विशेष घटनाएं होती हैं, जो विशेष ज्योतिषीय परिस्थितियों के तहत होती हैं। ये अधिकांशतः वर्ष में कुछ बार होते हैं, लेकिन ये हर बार एक ही स्थान पर नहीं होते हैं।
सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण का क्या महत्व है?
सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण कई धार्मिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक संदर्भों में महत्वपूर्ण हैं। ये घटनाएं लोगों को विशेष प्रेरणा, ध्यान और अद्भुत अनुभव प्रदान करती हैं। वैज्ञानिक रूप से, इन घटनाओं का अध्ययन वैज्ञानिकों को सूर्य और चंद्रमा की गतिशीलता और उनके पर्यावरणीय प्रभावों को समझने में मदद करता है।
सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के लिए तैयारी कैसे की जाए?
सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के लिए तैयारी में अहम भूमिका होती है। यहाँ कुछ तरीके हैं जिनका पालन करके आप इन घटनाओं का अनुभव कर सकते हैं: ज्योतिषीय सूचना का अध्ययन: अग्रणी ज्योतिषीय संस्थानों और वेबसाइटों से सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण की तिथियों की जानकारी प्राप्त करें।सुरक्षा का ध्यान रखें: सूर्य ग्रहण के समय ध्यान देने के लिए नेत्रों की सुरक्षा के लिए विशेष ध्यान दें, और सूर्य के उज्ज्वल प्रकार को देखने के लिए स्पेशल धारकों का उपयोग करें।ध्यान और मनन: यह अवसर है कि आप ध्यान और मनन के लिए विशेष समय निकालें। इस समय को ध्यान और आत्म-परिचय के लिए उपयोग करें।परंपरागत आचरण: कई संस्कृतियों में, सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के समय धार्मिक क्रियाओं का आयोजन किया जाता है। इन क्रियाओं में भाग लेने के लिए अनुशासन और समर्थन दें।सामाजिक सहयोग: अपने परिवार और समुदाय के साथ इन घटनाओं का आनंद लेने के लिए तैयार हो जाएं। इससे आपका अनुभव और भी स्पेशल होगा।
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