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महर्षि पतंजलि | योगदर्शन के बारे में। जीवनी

 महर्षि पतंजलि को योग दर्शन के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है योग की विभिन्न धाराओं को मिलाकर इन्होंने एक महानदी का रूप दिया जिसके अन्दर योग की सभी पद्धतियों का समावेश हो जाता है। इनका विस्तृत चरित्र पतंजलि चरित्र तथा लघु मुनि त्रिकल्पतरू में प्राप्त होता है

महर्षि पतंजलि | योगदर्शन के बारे में। जीवनी

ऋषियों के नामों के अन्तर्गत महर्षि पतंजलि का नाम बहुत अधिक सम्मान के साथ लिया जाता है। व्याकरण के ग्रंथों के अनुसार ये अपने पिता की अंजलि में अर्ध्य दान करते समय दिव्य रूप से ऊर्ध्वलोक से आकर गिरे । इसी कारण इसका नाम पतंजलि पड़ा। यह इनके योग के प्रभाव का ही मूर्त रूप था। इनकी कृतियां यद्यपि अनेक हैं परन्तु योग दर्शन सबसे मुख्य है।


अधिकतर विद्वानों की मान्यता है कि महर्षि पतंजलि ने मनुष्य मात्र के कल्याण को ध्यान में रखते हुए तीन महाग्रंथों की रचना की जो व्यक्ति का इहलौकिक व पारलौकिक दोनों प्रकार का विकास करने में सक्षम हैं। योग वार्तिक में कहा गया है-


योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतंजलिं प्रांजलिरानतोऽस्मि ।।


अर्थात्- महर्षि पतंजलि ने मनुष्य के चित्त की शुद्धि के लिये पतंजलि के नाम 'योगसूत्र', वाणी की शुद्धि के लिये पाणिनी के नाम से व्याकरण के ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' तथा शरीर की शुद्धि के लिए चरक के नाम से 'चरक संहिता' इन तीन महाग्रंथों की रचना की। इनमें व्याकरण महाभाष्य सबसे बड़ा ग्रंथ है। ये ग्रंथ ऐसे ग्रंथ हैं जो अपने क्षेत्र में अद्वितीय हैं। इनके पश्चात् इन क्षेत्रों में जो भी कार्य हुआ वह सब इन्हीं को आधार मानकर किया गया है। यह सिद्ध करता है कि महर्षि पतंजलि एक सिद्ध योगी थे, जिन्होंने सभी पदाथों का वास्तविक रूप से साक्षात्कार किया और प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करते हुए उसको अपनी रचना में स्थान प्रदान किया।


इनके योगसूत्रों पर स्वयं भगवान वेदव्यास का भाष्य प्राप्त होता है, जो सांख्य प्रवचन भाष्य के नाम से जाना जाता है। प्रवर्ती टीकाएं तो अनेक हैं, जिनमें वाचस्पति मिश्र की तत्ववैशारदी, विज्ञान भिक्षु का योग वार्तिक, शंकर का 'भाष्य विवरण' हरिअर्जुन का भाष्य टीका, भिक्षु का 'योग सुधाकर' आदि प्रसिद्ध ग्रंथ है। इन सभी में महर्षि पतंजलि का योग सूत्र इतना महत्वपूर्ण ग्रंथ है कि जब वेद व्यास जी को इसके भाष्य से संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने पुराणों में इस योग का समावेश किया। लिंगादि पुराणों में योग दर्शन का पदबद्ध (पदमय) अनुवाद प्राप्त होता है। इससे इनकी योगाचार्यता और आदि प्रवर्तक के रूप में प्रतिष्ठापित होना प्राचीन काल से ही सर्वमान्य है।


महर्षि पतंजलि का योगदर्शन अत्यन्त प्राचीन दर्शन है और इससे सभी प्रकार के आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक दुःख समाप्त होकर सिद्धियों के लाभ प्राप्त होते हैं। साधक सरलता से देवताओं का सान्निध्य प्राप्त कर उनसे पूरा लाभ उठा सकता है। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि स्वाध्याय के द्वारा साधक इष्ट देव के दर्शन प्राप्त कर उनसे लाभ प्राप्त कर सकता है। साधक थोड़ी तन्मयता से भी अपने सभी पूर्व जन्मों तथा आगे आने वाले अवस्था में मुक्ति का ज्ञान प्राप्त कर लेता है और विधिपूर्वक साधना से देवताओं के बीच विचरने तथा आकाशगमन की सिद्धियों की प्राप्ति करता है। जागृत अवस्थाओं की साधनाओं का स्वप्नादि अवस्थाओं पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। यदि शांत मन व विवेक के द्वारा उन स्वप्नों की गुत्थियों को सुलझा सके अथवा स्वप्न के दिखे हुए देवता, पितृ, मुनि, सन्तों, देवियों की श्रद्धापूर्वक ध्यान आराधना करें, तो वे उसे अपार सहायता पहुँचाते हैं और उससे सभी प्रकार का दिव्य ज्ञान व मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है।


संक्षेप में मर्हिष पतंजलि ने साधक को स्वरूप में स्थित होने की युक्ति बतलायी है। उनके ग्रंथों के प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि वे अजर, अमर व सभी सिद्धियों से समायुक्त थे। केवल लोकोपकार के लिए ही उन्होंने ग्रंथों का पुर्ननमन किया। जिससे 'व्यास' 'शुकदेव' 'गौड़पादाचार्य' शंकराचार्य अन्य उच्च कोटि के आचार्य भी प्रभावित हुए। आचार्य व्यास ने तो उनके योगसूत्र पर भाष्य और पुराणों में उनकी योग शिक्षा की चर्चा के अतिरिक्त भी ब्रह्मसूत्र के चौथे अध्याय में योग पाद का सन्निवेश किया है। जो योग दर्शन पर ही आधारित है। जैसे 'स्थिर सुखमासनम् ' के स्थान पर 'आसीनः सम्भवान्' आदि सूत्र ठीक उसी प्रक्रिया में सभी साधनों को निर्दिष्ट करते हुए मोक्ष तक ले जाते हैं। जिस पर शंकराचार्य आदि के विलक्षण भाष्य हैं। महर्षि पतंजलि द्वारा निर्देशित यम-नियम आदि में से कोई एक भी साधन ठीक ढंग से आरंभ करने पर भगवत कृपा से साधक में स्वयं योग की प्रवृत्तियों के प्रथम लक्षण में भगवान पतंजलि ने स्वयं ज्योतिष्मती, गंधवती, स्पर्शवती, रूपवती, एवं रसवती इन पांच योग वृत्तियों में से किसी एक लक्षण के प्रकट हो जाने पर योग शक्ति में उसके प्रवेश का लक्षण बताया है। इनसे साधक के अन्दर सभी देवी-देवता, दिव्य पदार्थ, शास्त्र आदि वचनों में परलोक में पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास हो जाता है, जिसके फलस्वरूप उसका शीघ्र कल्याण होता है। इसलिये इस योगचर्या में थोड़ी दूर चलना भी महान् कल्याणकारी होता है।


इस योग विद्या का प्रचार आज भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में है, जिसका मूलतः श्रेय महर्षि पतंजलि को ही है। उनके योग दर्शन में कोई हानिकारक या अनिष्ट, अनुचित वस्तु है ही नहीं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य त्याग की वृत्ति, पवित्रता, स्वाध्याय या ईश्वर प्रेम की बात में सभी बातें ऐसी हैं, जिनको सभी धमों- सम्प्रदायों ने समान रूप से स्वीकार किया है। पतंजलि का योग किसी धर्म या सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ नहीं है न ही उसमें किसी का निरोध किया गया है। जिससे यह योग विद्या सभी को मान्य है। इसलिये योग मार्ग के पथिकों का पुनीत कर्त्तव्य है कि महर्षि पतंजलि के बताये योग मार्ग का आश्रय लेकर अखण्ड शान्ति एवं परम आनन्द प्राप्ति की ओर अग्रसर हो। इसी में मनुष्य जन्म की सच्ची सार्थकता है।


साधनाएं-महर्षि पतंजलि ने संसार सागर से पार होने के लिए अपने योग सूत्र में तीन प्रकार की साधनाओं का मुख्य रूप से वर्णन किया है। चित्तवृत्ति निरोध के लिए महर्षि पतंजलि कहते हैं।


'अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः।'


अर्थात् अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। इस अभ्यास और वैराग्य की साधना का वर्णन उन्होंने उत्तम कोटि के साधकों को लिए बताया है। इन साधकों के लिए एक-दूसरे साधन का वर्णन करते हुए पतंजलि कहते हैं-


'ईश्वर प्राणिधानाद्वा' अर्थात् जो उत्तम कोटि के साधक हैं उन्हें केवल ईश्वर के प्रति समर्पण भाव से योग सिद्धि हो जाती है।


'मध्यम कोटि' के साधकों के लिए महर्षि पतंजलि क्रियायोग की साधना का वर्णन हैं। क्रियायोग का वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि' कहते हैं-

'तप स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधानानि क्रियायोगः।'


अर्थात् तप स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान क्रियायोग है। इसके अभ्यास से भी चित्त वृत्तियों का निरोध संभव है।

एक तीसरी साधना जो सामान्य पुरुषों और विद्वानों के लिए समान है, उसका वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि ने यम-नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इस अष्टांग योग का मार्ग बताया है। उनकी यही साधना पद्धति सर्वशुलभ एवं लोकप्रिय है।


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FAQ 

पतंजलि योग के क्या फायदे हैं?

पतंजलि योग साधक को मानसिक, शारीरिक, और आध्यात्मिक स्वास्थ्य, और आनंद की प्राप्ति में मदद करता है। यह ध्यान, धारणा, और आत्मसाक्षात्कार के माध्यम से आत्मज्ञान को प्रोत्साहित करता है।

पतंजलि योग के क्या लक्षण हैं?

योग साधना के लक्षणों में चित्त की स्थिरता, सुख, और दृढ़ता की प्राप्ति, अन्तरात्मा के साथ एकाग्रता, और शारीरिक स्वास्थ्य की सुरक्षा शामिल होती है।

पतंजलि योग के लिए क्या आवश्यकताएं हैं?

योग साधना के लिए समर्पण, समय, धैर्य, और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है। साधक को आध्यात्मिक गुरु की मार्गदर्शन की भी आवश्यकता होती है।

पतंजलि योग के प्रकार क्या हैं?

पतंजलि योग के आठ प्रमुख अंग हैं: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि। ये सभी अंग साधक को अंतरंग और बाह्य संगठन की स्थिति में स्थिरता और समयोगिता देने का काम करते हैं।

पतंजलि योग का प्रभाव और उपयोग क्या हैं?

पतंजलि योग साधक को आत्म-ज्ञान, आनंद, और शांति की अनुभूति कराता है, जो उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में सफल और संतुष्ट बनाता है। यह भी मानसिक स्थिरता, रोगनिरोधक क्षमता, और समृद्धि के साथ स्वास्थ्य बढ़ाता है।

पतंजलि योग के लिए संसाधन कहाँ से प्राप्त किए जा सकते हैं?

पतंजलि योग के संसाधन आमतौर पर योग शालाओं, आध्यात्मिक संस्थानों, और आध्यात्मिक गुरुओं के माध्यम से प्राप्त किए जा सकते हैं। इसके अलावा योग पुस्तकें, आध्यात्मिक वेबसाइट्स और योग ऐप्स भी साधकों को संसाधन प्रदान करते हैं।

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