गृह्यसूत्र
गृह्यसूत्रों का महत्त्व : गृह्यसूत्रों का अनेक कारणों से विशेष महत्त्व है। संक्षेप में ये कारण हैं:-
१. गृह्यसूत्रों का संबन्ध गृहस्थ जीवन से है। गृहस्थ जीवन से संबद्ध सभी संस्कार इसमें संगृहीत हैं, अतः जीवन के सबसे बहुमूल्य काल का यह पथप्रदर्शक है।
२. इनमें जीवन से संबद्ध सभी १६ संस्कार आते हैं। संस्कार जीवन को परिष्कृत करने की एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। उस प्रक्रिया का आधार होने के कारण ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
३. इनमें संस्कारों की समग्र विधि दी गई है, जो किसी समाज या राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना के उद्घोषक हैं।
४. ये वैदिक संस्कृति और सभ्यता के परिचायक हैं।
५. इनसे आर्यों की सामाजिक स्थिति और परम्पराओं का ज्ञान होता है।
६. इनसे भारोपीय समुदाय में प्रचलित धार्मिक और सामाजिक परंपराओं, रीति-रिवाजों और प्रथाओं पर प्रकाश पड़ता है। प्रो० विन्टरनित्स ने अपने एक निबन्ध में सिद्ध किया है कि भारोपीय आर्यों में गहरे धार्मिक और सामाजिक संबन्ध विद्यमान थे ।' अतएव रोमन, जर्मन, यूनानी और स्लावों के विवाह-संस्कार में अनेक समानताएँ हैं। जैसे, विवाह में अग्नि की परिक्रमा, पाणिग्रहण, लाजाहोम, सप्तपदी आदि ।
७. गृह्यसूत्रों से जनपदों और ग्रामों में प्रचलित लोकधर्म और प्रथाओं का ज्ञान होता है। आश्वलायन गृह्यसूत्र ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि विवाह आदि में जनपद और ग्रामों में प्रचलित रीति-रिवाजों एवं प्रथाओं का पालन करना चाहिए । 'अथ खलु उच्चावचा जनपदधर्मा ग्रामधर्माश्च, तान् विवाहे प्रतीयात्' (आश्व० १.५.१-२) । इसो प्रकार आपस्तम्ब और पारस्कर गृह्यसूत्रों ने भी लोकधर्मों को मान्यता प्रदान की है। साथ ही निर्देश दिया है कि ऐसे लोकधर्मों की जानकारी वृद्ध स्त्रियों आदि से प्राप्त करें ।
८. गृह्यसूत्रों आदि को ही यह श्रेय है कि हजारों वर्ष बाद भी पूरे भारत में विभिन्न गृह्य संस्कारों, विशेषतः विवाह एवं उपनयन संस्कारों आदि, में एकरूपता आजत अक्षुण्ण है।
९. इनका वैदिक धर्म और संस्कृति की सुरक्षा में बहुत बड़ा योगदान है।
१०. गृह्यकर्मों के लिए अनेक ऋत्विजों की आवश्यकता नहीं होती । अनेक संस्कारों का संपादन स्वयं यजमान ही कर सकता है।
ऋग्वेदीय गृह्यसूत्र
ऋग्वेद के संप्रति तीन गृह्यसूत्र उपलब्ध हैं:
१. आश्वलायन,
२. शांखायन,
३. कौषीतकि । इनका संक्षिप्त विवरण यह है :
१. आश्वलायन गृह्यसूत्र
इसके रचयिता आश्वलायन ऋषि हैं। ये शौनक के शिष्य थे। यह गृह्यसूत्रों में प्राचीनतम माना जाता है। अन्य गृह्यसूत्रों की अपेक्षा आश्वलायन गृह्यसूत्र में वर्णित विवाह आदि संस्कारों की विधियाँ कुछ सरल हैं।
इसमें चार अध्याय हैं। इसके मुख्य प्रतिपाद्य-विषय ये हैं :
अध्याय १ : पाकयज्ञ, दैनिक होम, स्थानीपाक, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, अनप्राशन, मुंडन, उपनयन, ब्रह्मचर्यनियम, मधुपर्क ।
अध्याय २ : श्रवणाकर्म, अष्टका, वास्तुनिर्माण, गृह-प्रवेश ।
अध्याय ३ : पंच महायज्ञ, ऋषितर्पण, उपाकर्म, समावर्तन ।
अध्याय ४ : दाहकर्म, श्राद्ध ।
इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण बातें वर्णित हैं। यथा १. ऋषितर्पण (३.३) में प्राचीन आचार्यों के नाम वर्णित हैं, जो अन्यत्र नहीं मिलते। २. अध्याय ३ में वेदाध्ययन के विशिष्ट नियम । ३. उपाकर्म (श्रावणी) का विस्तृत विवरण ।
इसकी मुख्य ये ४ टीकाएँ मिलती हैं १. जयन्त-स्वामी कृत 'विमलोदय- माला । २. देवस्वामी का भाष्य । ३. नारायण कृत 'विवरण' टीका । ४. प्रसिद्ध वैयाकरण हरदत्त-कृत 'अनाविला' टीका ।
इसके कलकत्ता और बम्बई से चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
२. शांखायन गृह्यसूत्र
इसका संबन्ध ऋग्वेद की बाष्कल शाखा से है। इसके रचयिता 'सुयज्ञ' हैं । इसमें ६ अध्याय हैं। प्रतिपाद्य विषय प्रायः वही हैं। टीकाकार नारायण का कथन है कि पंचम अध्याय परिशिष्ट है। षष्ठ अध्याय में वैदिक संहिताओं और उपनिषदों आदि के अध्ययन के नियम हैं। इस प्रकार इसके चार अध्यायों में ही गृह्यसूत्रों में वर्ण्य विषयों का उल्लेख है। पंचम अध्याय में कूप, तडाग, उद्यान आदि की स्थापना जैसे विषयों का वर्णन है, जो धर्मसूत्रों आदि का विषय है।
प्रो० ओल्डेनबर्ग ने इसका जर्मन भाषा में अनुवाद किया है। इसका एक संस्करण सीताराम सहगल द्वारा संपादित दिल्ली से १९६० में प्रकाशित हुआ है ।
३. कौषीतकि गृह्यसूत्र
इसके लेखक शाम्भव्य या शांबव्य हैं। इसमें ५ अध्याय हैं । इसके प्रथम चार अध्यायों के विषय प्रायः शांखायन के तुल्य हैं। इसके अन्तिम अध्याय में अन्त्येष्टि का निरूपण है। इसका पंचम अध्याय शांखायन से भिन्न है। अतः शांखायन और कौषीतकि गृह्यसूत्रों को एक ही ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। इसके २ संस्करण प्राप्य हैं: १. टी०आर० चिन्तामणि द्वारा संपदित एवं मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित । २. पं० रत्नगोपाल द्वारा संपादित, काशी संस्कृत सीरीज में प्रकाशित।
शुक्ल-यजुर्वेदीय गृह्यसूत्र
पारस्कर गृह्यसूत्र
शुक्ल यजुर्वेद की दोनों शाखाओं, वाजसनेयी और काण्व, का यही एक गृह्यसूत्र है। इसमें ३ कांड हैं। प्रत्येक कांड का विभाजन कंडिकाओं में हुआ है। तीनों कांडों में ५१ कंडिकाएँ हैं। इसके रचयिता आचार्य पारस्कर हैं। पारस्कर का समय २०० ई०पू० के लगभग माना जाता है। इस गृह्यसूत्र में लगभग ६६ विषयों का वर्णन है।
इसके मुख्य प्रतिपाद्य विषय ये हैं :
कांड १ : होम के सामान्य नियम, विवाह-विधि, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, , नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन ।
जातकर्म कांड २ : चूडाकर्म, उपनयन, समावर्तन, पंच महायज्ञ, उपाकर्म, अनध्याय, इन्द्रयज्ञ, सीतायज्ञ ।
कांड ३ : आग्रहायणी कर्म, अष्टका, शाला-कर्म, दाहविधि, सभाप्रवेश, रथारोहण, हस्ति-आरोहण ।
परिशिष्ट में वापी-कूप-तडाग आदि की स्थापना, ब्रह्मयज्ञविधि, तर्पणविधि, श्राद्धसूत्र आदि हैं।
प्रायः संपूर्ण उत्तर भारत में इसकी पद्धति के अनुसार गृह्यकर्मों का अनुष्ठान होता है। इस पर पाँच विद्वानों ने भाष्य किए हैं। इनके नाम हैं: १. कर्क, २. जयराम, ३. हरिहर, ४. गदाधर, ५. विश्वनाथ। इनमें हरिहर का भाष्य अधिक लोकप्रिय है।
इसके दो संस्करण मुख्य हैं: १. गुजराती प्रिंटिंग प्रेस मुम्बई से प्रकाशित, पाँचों भाष्यों से युक्त संस्करण । २. चौखम्बा, वाराणसी से प्रकाशित ।
इसके कतिपय अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं। इनमें मुख्य हैं: १. अंग्रेजी में ओल्डेनबर्ग - कृत, २. जर्मन में स्टेन्त्सलर-कृत, ३. हिन्दी में ओम्प्रकाश पाण्डेय कृत । वैजवाप गृह्यसूत्र : शुक्ल यजुर्वेद का यह एक अन्य गृह्यसूत्र है। यह पूर्णरूप से प्राप्य नहीं है। इसके कुछ अंश जो अन्य ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं, उनका संकलन पं० भगवद्दत्त ने 'बैजवाप-गृह्यसूत्र संकलनम्' नाम से १९२८ में लाहौर से प्रकाशित किया है। कुमारिल भट्ट ने अपने तंत्रवार्तिक (१.३.१०) में बैजवाप के कल्पसूत्र का सर्वप्रथम उल्लेख किया है।
कृष्ण-यजुर्वेदीय गृह्यसूत्र
कृष्ण यजुर्वेद के लगभग ९ गृह्यसूत्र उपलब्ध हैं।
१. बौधायन गृह्यसूत्र
इसके रचयिता बौधायन हैं। इनका समय ९०० ई०पू० के लगभग माना जाता है। यह बोधायन कल्पसूत्र का एक विशिष्ट अंश है। श्री शामशास्त्री द्वारा संपादित इसका संस्करण १९२० ई० में मैसूर से प्रकाशित हुआ था। इसमें चार प्रश्न (अध्याय) हैं। कुछ हस्तलिखित प्रतियों में इसके दस प्रश्न भी हैं। इसमें मुख्य वर्ण्य-विषय ये हैं : विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, समावर्तन, वैश्वदेव, पंच महायज्ञ, गोदान, दीक्षा, वास्तुशमन, श्राद्ध, प्रायश्चित्त ।
इसके पश्चात् गृह्य-परिभाषासूत्र है। इसके मुख्य विषय हैं: ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, पाकयज्ञ, स्नातक के धर्म, स्मार्तकृत्य, यज्ञोपवीत धारण के प्रकार, अतिथि सत्कार के प्रकार, पुत्र-प्राप्त्यर्थ होम ।
इस गृह्यसूत्र का प्रचार दक्षिण भारत में रहा है।
२. मानव गृह्यसूत्र
यह मैत्रायणी शाखा से संबद्ध है। इसको मैत्रायणीय मानव गृह्यसूत्र भी कहते हैं। इसके रचयिता आचार्य मानव माने जाते हैं। इस पर अष्टावक्र का भाष्य है। इसमें दो पुरुष (अध्याय) हैं। इनके उप-विभाग (खंड) ४१ हैं। इसके मुख्य प्रतिपाद्य-विषय ये हैं : ब्रह्मचारी के कर्तव्य, समावर्तन संस्कार, प्रायश्चित्त, वेदाध्ययनविधि, अनध्याय, विवाह, वर-वधू के लक्षण, गर्भाधान, सीमन्तोन्नयन, पुंसवन, जातकर्म, नामकरण, अनप्राशन, चौलकर्म, उपनयन, चातुर्मास्य, शालाकर्म, पंच महायज्ञ, विनायक-शान्ति, पुत्रेष्टियाग, सामान्य परिभाषाएँ ।
इसके चार संस्करण प्राप्य हैं: १. फ्रीड्रिश क्राउएर (Friedrich knauer) द्वारा संपादित अष्टावक्र के भाष्य के उद्धरणों सहित सेंट पीटर्सबर्ग से प्रकाशित । २. विनयतोष भट्टाचार्य द्वारा संपादित, अष्टावक्र भाष्ययुक्त, गायकवाड़ सीरीज में बड़ौदा से १९२६ में प्रकाशित । ३. रामकृष्ण हर्षे द्वारा संपादित अष्टावक्र भाष्य-युक्त १९२६ में प्रकाशित । ४. पं० भीमसेन शर्मा-कृत हिन्दी अनुवाद-सहित ।
३. भारद्वाज गृह्यसूत्र
यह भारद्वाज कल्पसूत्र का एक अंश है। इसमें तीन प्रश्न (अध्याय) हैं। इनमें मुख्य वर्ण्यविषय ये हैं : उपनयन, विवाह, सीमन्तोन्नयन, पुंसवन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चौलकर्म, शालाकर्म, गृहप्रवेश, रथारोहण, प्रायश्चित्त, श्राद्ध आदि ।
इसमें अनेक नए मंत्रों का विनियोग है। रचनाशैली सरल और सुबोध है। इसकी बौधायन गृह्यसूत्र से बहुत समानता है। कात्यायन ने भारद्वाज के मत का उल्लेख किया है, अतः भारद्वाज कात्यायन से पूर्ववर्ती हैं। इसका एक संस्करण डा० सालोमन्स द्वारा संपादित लाइडेन से प्रकाशित हुआ है।
४. आपस्तम्ब गृह्यसूत्र
यह आपस्तम्ब कल्पसूत्र का एक अंश है। इस कल्पसूत्र में ३० प्रश्न (अध्याय) हैं। इनमें से २५,२६ और २७ अध्याय गृह्यसूत्र हैं। २७वें अध्याय में गृह्यकर्मों का वर्णन है। २५ और २६ अध्यायों में विनियोज्य मंत्रों का निर्देश है।
इसके मुख्य वर्ण्य-विषय ये हैं परिभाषाएँ, पाकयज्ञ, विवाह, स्थालीपाक, वैश्वदेव कर्म, उपाकरण, उपनयन, गायत्री उपदेश, ब्रह्मचर्य के नियम, ऋषितर्पण, समावर्तन, मधुपर्क, सीमन्तोत्रयन, पुंसवन, जातकर्म, नामकरण, अत्रप्राशन, चौलकर्म, होम, स्विष्टकृत्, रथारोहण आदि, प्रायश्चित्त ।
इसका हिरण्यकेशि-गृह्यसूत्र के साथ घनिष्ठ संबन्ध है। इस पर दो टीकाएँ हैं : १. हरदत्तमिश्र कृत 'अनाकुला' टीका । २. सुदर्शनाचार्य कृत 'तात्पर्यदर्शन' टीका । इसके ४ संस्करण प्राप्य हैं: १. प्रो० विन्टरनित्स द्वारा संपादित, उक्त दोनों टीकाओं से युक्त, वियेना से १८८७ में प्रकाशित । २. श्री महादेव शास्त्री द्वारा संपादित, हरदत्त की टीका-युक्त, मैसूर से १८९३ में प्रकाशित । ३. श्री चिन्नस्वामी शास्त्री द्वारा संपादित, दोनों टीकायुक्त, १९२८ में प्रकाशित । ४. दोनों टीका से युक्त, डा० उमेशचन्द्र पांडेय- कृत हिन्दी अनुवाद-सहित, चौखंबा से प्रकाशित ।
५. काठक गृह्यसूत्र
इसका ही दूसरा नाम 'लौगाक्षि-गृह्यसूत्र' है। इसका कठ (काठक) शाखा से संबन्ध है। पतंजलि मुनि ने महाभाष्य में कठ शाखा का नाम बड़े आदर के साथ लिया है और कहा है कि ग्राम-ग्राम में कठ और कालापक का प्रचार है। 'ग्रामे-ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोच्यते' (अष्टा० ४.३.१०१ पर भाष्य) । मानव और वाराह गृह्यसूत्रों में इसका घनिष्ठ संबन्ध है। बहुत से स्थलों पर शब्दशः साम्य मिलता है।
इसमें ५ अध्याय और ७५ कंडिकाएँ (खंड) हैं। मुख्य वर्ण्यविषय ये हैं : ब्रह्मचर्य के नियम, समावर्तन, उपाकर्म, पाकयज्ञ, विवाह, गर्भाधान, सीमन्तोन्नयन, पुंसवन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, वेदाध्ययन, होम, स्वस्त्ययन, श्राद्ध ।
इसकी तीन व्याख्याएँ प्राप्य हैं: १. आदित्यदर्शन कृत 'विवरण', २. ब्राह्मणबल - कृत 'गृह्यपद्धति', ३. देवपाल कृत 'भाष्य' । डा० कैलेन्ड ने तीनों व्याख्याओं के सारांश के साथ संपादित कर १९२२ में लाहौर से प्रकाशित किया ।
६. आग्निवेश्य गृह्यसूत्र
इसके रचयिता आचार्य अग्निवेश हैं। इसमें ३ प्रश्न (अध्याय) हैं। बौधायन, हिरण्यकेशी और भारद्वाज गृह्यसूत्रों से इसका बहुत साम्य है। इसमें अनेक नए विषयों का प्रतिपादन हुआ है। इसमें मूर्तिपूजा का भी विधान है। इसमें तांत्रिक यंत्रों का उल्लेख है तथा तांत्रिक शब्दावली भी है। इस पर धार्मिक संप्रदायों का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। इसके मुख्य वर्ण्यविषय ये हैं: उपनयन, समावर्तन, विवाह, गृहप्रवेश, बलिवैश्वदेव, दर्श-पूर्णमास, स्थालीपाक, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चौलकर्म, शाला-निर्माण, यज्ञोपवीत-विधि, गृहयज्ञ, भूतबलि, देवयज्ञ, मधुपर्क, प्रायश्चित्त, वानप्रस्थ-विधि, संन्यासविधि, अन्त्येष्टि, श्राद्ध, नारायण बलि आदि ।
यह श्री एल०ए० रविवर्मा द्वारा संपादित १९४० में त्रिवेन्द्रम से प्रकाशित हुआ है।
७. हिरण्यकेशि-गृह्यसूत्र
इसको ही 'सत्याषाढ गृह्यसूत्र' भी कहते हैं। यह 'हिरण्यकेशि-कल्पसूत्र' का एक अंश प्रश्न १९ और २० है। इन दो प्रश्नों (अध्यायों) में प्रत्येक में ८ पटल (खंड) हैं। इसका भारद्वाज और आपस्तम्ब गृह्यसूत्रों में घनिष्ठ संबन्ध है। इसमें सूत्रशैली का विकसित रूप दृष्टिगोचर होता है। इसमें विनियोग वाले मंत्र पूरे दिए हैं। इसमें अनेक अपाणिनीय प्रयोग भी हैं। इसके मुख्य प्रतिपाद्य विषय ये हैं :
प्रश्न १ : उपनयन, समावर्तन, प्रायश्चित्त, विवाह, शालाकर्म ।
प्रश्न २ : सीमन्तोन्नयन, पुंसवन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपाकरण ।
इस पर मातृदत्त की प्रौढ व्याख्या है। डा० जे० किर्ते ने मूलग्रन्थ मातृदत्त की टीका-सहित वियेना से १८८९ में प्रकाशित किया था। डा० ओल्डेनबर्ग ने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया है। इसका एक संस्करण आनन्दाश्रम पूना ने 'हिरण्यकेशी स्मार्तसूत्र' नाम से प्रकाशित किया है।
८. वाराह गृह्यसूत्र
इसका संबन्ध मैत्रायणीय संहिता से है। इसमें उसी के मंत्रों का प्रयोग है। इसका मानवगृह्यसूत्र से घनिष्ठ संबन्ध है। इसमें एक नया संस्कार 'दन्तोद्गमन' (दाँत निकलना) दिया गया है। इसके विषय मानव गृह्यसूत्र के तुल्य हैं ।
इसके दो संस्करण निकले हैं: १. डा० शामशास्त्री द्वारा संपादित १९२० में मैसूर से प्रकाशित । २. डा० रघुवीर द्वारा संपादित १९३२ में लाहौर से प्रकाशित ।
९. वैखानस गृह्यसूत्र
इसका संबन्ध तैत्तिरीय शाखा से है। इसके रचयिता विखनस् मुनि माने जाते हैं। इसमें विनियोग वाले मंत्र प्रतीकरूप में दिए गए हैं। इन मंत्रों का एक संकलन 'वैखानसीया मंत्रसंहिता' नाम से प्रकाशित हुआ है। इस गृह्यसूत्र में ७ प्रश्न (अध्याय) और १२० खंड हैं। मुख्य वर्ण्यविषय ये हैं :
१. संस्कार : ये १८ हैं। इन्हें 'शारीर' नाम दिया है। मुख्य ये हैं गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तकर्म, जातकर्म, नामकरण, चूडाकर्म, उपनयन, उपाकर्म, समावर्तन, पाणिग्रहण ।
२. यज्ञ : ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ ।
३. हविर्यज्ञ : अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयणेष्टि, चातुर्मास्य, पशुबन्ध, सौत्रामणी ।
४. सोमयज्ञ : अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र, अप्तोर्याम । भाषा, रचनाशैली आदि की दृष्टि से इसे परकालीन माना जाता है।
डा० कैलेन्ड ने इसका संपादन करके अंग्रेजी अनुवाद के साथ इसे कलकत्ता से १९२९ में प्रकाशित किया है।
सामवेदीय गृह्यसूत्र
सामवेद के ये गृह्यसूत्र उपलब्ध हैं गोभिल, खादिर, द्राह्मायण और जैमिनीय डा० सूर्यकान्त ने 'कौथुमगृह्यम्' नाम से एक अन्य गृह्यसूत्र का भी संपादन किया है। इनका संक्षिप्त विवरण यह है :
१. गोभिल गृह्यसूत्र
यह सामवेद की कौथुम शाखा से संबद्ध है। यह सामवेद का सबसे प्रसिद्ध गृह्यसूत्र है। 'मन्त्रब्राह्मण' नामक एक सामवेदीय ग्रन्थ है, जिसमें गृह्यकर्मों में प्रयोज्य मंत्रों का संकलन है। उसमें से ही यह मंत्रों का सन्दर्भ देता है। इसमें मंत्र प्रतीकरूप में दिए हैं। सामसंहिता के भी मंत्र इसमें हैं।
इसमें चार प्रपाठक और उनमें ३९ खंड हैं। इसके मुख्य वर्ण्य-विषय ये हैं: प्रपाठक १ : सामान्य विधियाँ, होम के अधिकारी, अग्न्याधान, आचमनविधि, वैश्वदेव विधि, दर्श-पूर्णमास। प्रपाठक २ विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, उपनयन। प्रपाठक ३ गोदान, ब्रह्मचारी के कर्म, उपाकर्म, अनध्याय, समावर्तन । प्रपाठक ४ : पितृयज्ञ, काम्यकर्म, वास्तुनिर्माण, वास्तुयाग, यशस्काम कर्म ।
वर्ण्यविषयों की दृष्टि से इसमें वर्णित विषयों की संख्या बहुत अधिक है । गृह्यसूत्रों में यह अत्यन्त प्राचीन गृह्यसूत्र माना जाता है।
इसके कई संस्करण निकले हैं: १. क्नाउएर-संपादित १८८५ । २. सत्यव्रत सामश्रमी - संपादित १९०६ । ३. चिन्तामणि एवं भट्टाचार्य-संपादित, कलकत्ता १९२६ । ४. ओल्डेनबर्ग-कृत अंग्रेजी अनुवाद 'सेक्रेड बुक्स ऑफ ईस्ट सीरीज' खंड ३० ।
२. खादिर गृह्यसूत्र
यह सामवेद की राणायनीय शाखा से संबद्ध है। यह वस्तुतः गोभिल गृह्यसूत्र का संक्षिप्त संस्करण है। इस पर रुद्रस्कन्द की वृत्ति प्राप्त होती है। श्री महादेव शास्त्री ने इसका एक संस्करण मैसूर से १९१३ में प्रकाशित किया है ।
३. द्राह्यायण गृह्यसूत्र
यह खादिर गृह्यसूत्र के तुल्य ही है। दोनों में प्रायः वही पाठ्य है। इसके २ संस्करण मिलते हैं : १. आनन्दाश्रम पूना, १९१४ । २. हिन्दी अनुवाद-सहित, मुजफ्फरपुर १९३४ ।
४. जैमिनीय गृह्यसूत्र
यह गोभिल गृह्यसूत्र से कई रूपों में संबद्ध है। इसमें दो अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में २४ और द्वितीय में ९ कंडिकाएँ हैं। प्रथम अध्याय में संस्कारों का वर्णन है। द्वितीय में श्राद्ध, अष्टकाएँ, अन्त्येष्टि और शान्तिकृत्य । मंत्रों के उद्धरण बहुत हैं । इनमें से मंत्रब्राह्मण में कुछ ही मंत्र प्राप्य हैं। इसपर श्रीनिवासाघ्वरी-कृत 'सुबोधिनी' टीका प्राप्त होती है। डा० कैलेन्ड ने इसका एक संस्करण, टीका के कुछ उद्धरणों सहित, १९२२ में लाहौर से प्रकाशित किया है।
५. कौथुम गृह्यसूत्रम्
डा० सूर्यकान्त ने इसका संपादन किया है और एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता से प्रकाशित कराया है। वर्ण्यविषयों का क्रम गोभिल से भिन्न है। इसमें सबसे पहले 'अथातः प्रायश्चित्तानि' प्रायश्चित्तों का वर्णन किया है। यह गृह्यसूत्र बहुत संक्षिप्त है । संभवतः किसी प्राचीन पद्धति का अवशेष मात्र है।
अथर्ववेदीय कौशिक गृह्यसूत्र (कौशिक सूत्र)
अथर्ववेद का एकमात्र यही गृह्यसूत्र है। यह गृह्यसूत्र कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। अथर्ववेद में वर्णित शान्तिकर्म और अभिचार कर्मों का इसमें विशद विवेचन है। इसमें गृह्यकर्मों का वर्णन कम है, अभिचार कर्मों, यातुविद्या अर्थात् जादू-टोने, मंत्र-तंत्र, रोगनाशक उपाय, अभयप्राप्ति हेतु कर्म, पुष्टिकर्म, जय-पराजय के उपाय, मांडलिक राजाओं के अभिषेक आदि कर्मों का वर्णन बहुत अधिक है। इसमें अथर्ववेद से संबद्ध क्रिया-कलापों का वर्णन अधिक है और गृह्यकर्मों का वर्णन कम। इसको 'वैतान सूत्र' का उपजीव्य ग्रन्थ माना जाता है। यह अथर्ववेद की सभी शाखाओं के कर्मकाण्ड का विशद वर्णन करता है। इसको ही 'कौशिक सूत्र' भी कहते हैं।
इसमें १४ अध्याय हैं। उनका विभाजन १४१ कंडिकाओं में हुआ है। आचार्य सायण ने कौशिकसूत्र में वर्णित विषयों का सार अथर्ववेद-भाष्य की भूमिका में दिया है।
विषयानुसार उनका संक्षिप्त विवरण यह है :
१. यज्ञ, अनुष्ठान एवं संस्कार से संबद्ध विषय स्थालीपाक, दर्श-पूर्णमास विधि, ब्रह्मौदन आदि २२ सवन यज्ञ, इन्द्रमह, गर्भाधान से लेकर विवाह, पितृमेध आदि संस्कार ।
२. पौष्टिक विधि : चित्राकर्म आदि पौष्टिक कृत्य ।
३. शान्त्यर्थ कर्म और अनिष्ट निवारण पाप, शाप, राजक्रोध आदि के निवारणार्थ कर्म, गृहशान्तिविधि, कुस्वप्न-निवारण, अपशकुन की शान्ति, विविध उत्पातों और अनिष्टों की शान्ति ।
४. अर्थशास्त्रीय विषय गोसमृद्धि कर्म, लक्ष्मीसाधक कर्म, वृष्टि-साधक कर्म, कृषिवर्धक कर्म ।
५. राजतंत्रीय विषय : राजा के कर्तव्य, शत्रुसेना-समोहन और शत्रुनाशन, शत्रुसेनानाशार्थ अभिमन्त्रित जाल आदि डालना, निर्वासित राजा को पुनः राजगद्दी पर बैठाना, राजा का अभिषेक ।
६. अभ्युदय और अभीष्टसिद्धि के लिए कार्य ग्राम, नगर और राष्ट्र की सुरक्षा के कार्य, पुत्र-पशु-धन-धान्यादि के लाभ हेतु कर्म, लक्ष्मीवर्धक कर्म, स्त्री- सौभाग्य-वर्धक कर्म, सभाजय, व्यापार लाभ हेतु कर्म, कुशलता, दीर्घायुष्य आदि ।
७. शिक्षा : मेधाजनन, ब्रह्मचारी के कर्तव्य, अध्ययनविधि ।
८. सामंजस्य, एकता जनकल्याण और एकता-संपादनार्थ कर्म ।
९. भैषज्य : विविध रोगों की चिकित्सा। ज्वर, बहुमूत्र, हृदयरोग, वात-पित्त- कफज रोग, विषमज्वर, राजयक्ष्मा आदि की चिकित्सा, सभी प्रकार के विष का निवारण आदि ।
१०. कृत्या-प्रयोग और कृत्या परिहार विभिन्न कर्मों के लिए अभिचार- कर्म (जादू-टोना आदि करना) और दूसरे के द्वारा प्रयुक्त अभिचारों का निवारण, शाप-
निवारण, राजक्रोध-निवारण आदि ।
११. नारी : सुखप्रसव, पुत्रलाभ, गर्भाधान आदि, स्त्री-कुलक्षण-नाशन, सपत्नी- नाशन, पतिवशीकरण, सौभाग्यलाभ ।
१२. शालानिर्माण : नवशालानिर्माण, गृहशद्धिकर्म, गृहप्रवेश, गृहशान्ति ।
१३. प्रायश्चित्त : निषिद्ध दान लेना, अयाज्य के यहाँ यज्ञ कराना, विविध पापों के लिए प्रायश्चित्त ।
१४. भविष्यवाणी कार्य में सफलता या असफलता की भविष्यवाणी । इसकी रचना यास्क (८०० ई०पू०) से पूर्व मानी जाती है। इस पर दारिल और केशव का भाष्य प्राप्त होता है। इस पर एक अज्ञात लेखक की 'आथर्वण पद्धति' भी मिलती है। इसके दो संस्करण प्राप्य हैं: १. एम० ब्लूमफील्ड द्वारा संपादित, भाष्यों के कतिपय उद्धरणों के साथ, मोतीलाल बनारसीदास द्वारा पुनः १९७२ में प्रकाशित ।
२. दिवेकर एवं लिमये द्वारा संपादित, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ पुणे द्वारा १९७२ में प्रकाशित ।
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